शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

48. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा

जटाशंकर स्कूल में पढता था। जाति का वह रबारी था। भेड बकरियों को चराता था। छोटे-से गाँव में वह रहता था।
अध्यापक ने गणित समझाते हुए क्लाँस में बच्चों से प्रश्न किया- बच्चों! मैं तुम्हें गणित का एक सवाल करता हूँ।
एक बाडा है। बाडे में पचास भेडें हैं। उनमें से एक भेड ने बाड कूदकर छलांग लगाली, तो बताओ बच्चों! उस बाडे में पीछे कितनी भेडें बची।
जटाशंकर ने हाथ उँचा किया। अध्यापक ने प्रेम से कहा- बताओ! कितनी भेडें बची।
जटाशंकर ने कहा- सर! एक भी नहीं!
अध्यापक ने लाल पीले होते हुए कहा- इतनी सी भी गणित नहीं आती। पचास में से एक भेड कम हुई तो पीछे उनपचास बचेगी न!
जटाशंकर ने कहा- यह आपकी गणित है। पर मैं गडरिया हूँ! भेडों को चराता हूँ! और भेडों की गणित मैं जानता हूँ! एक भेड ने छलांग लगायेगी और सारी भेडें उसके पीछे कूद पडेगी। वह न आगे देखेगी न पीछे! सर! उन्हें आपकी गणित से कोई लेना देना नहीं।
भेडों की अपनी गणित होती है। इसी कारण बिना सोचे अनुकरण की प्रवृत्ति को भेड चाल कहा जाता है। वहाँ अपनी बुद्धि का प्रयोग नहीं होता। अपनी सोच के आधार पर गुण दोष विचार कर जो निर्णय करता है, वही व्यक्ति अपने जीवन को सफल करता है।

शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

47. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा

जटाशंकर दौडता दौडता अपने घर पहुँचा। घर वाले बडी देर से चिन्ता कर रहे थे। रोजाना शाम ठीक छह बजे घर आ जाने वाला जटाशंकर आज सात बजे तक भी नहीं पहुँचा था। वे बार बार बाहर आकर गली की ओर नजर टिकाये थे।
जब जटाशंकर को घर में हाँफते हुए प्रवेश करते देखा तो सभी ने एक साथ सवाल करने शुरू कर दिये। उसकी पत्नी तो बहुत नाराज हो रही थी।
उसने पूछा- कहाँ लगाई इतनी देर!
जटाशंकर ने कहा- भाग्यवती! थोडी धीरज धार! थोडी सांस लेने दे! फिर बताता हूँ कि क्या हुआ! तुम सुनोगी तो आनंद से उछल पडोगी! मुझ पर धन्यवाद की बारिश करोगी!
कुछ देर में पूर्ण स्वस्थता का अनुभव करने के बाद जटाशंकर ने कहा- आज तो मैंने पूरे पाँच रूपये बचाये है!
रूपये बचाने की बात सुनी तो जटाशंकर की कंजूस पत्नी के चेहरे पर आनंद तैरने लगा।
उसने कहा- जल्दी बताओ! कैसे बचाये!
जटाशंकर ने कहा- आज मैं आँफिस से जब निकला तो तय कर लिया कि आज रूपये बचाने हैं। इसलिये बस में नहीं बैठा! बस के पीछे दौडता हुआ आया हूँ। यदि बस में बैठता तो पाँच रूपये का टिकट लगता! टिकट लेने के बजाय मैं उसके पीछे दौडता रहा, हाँफता रहा और इस प्रकार पाँच रूपये बचा लिये। बोलो धन्यवाद दोगी कि नहीं!
जटाशंकर की पत्नी का मुखकमल खिल उठा! परन्तु पल भर के बाद नाराज होकर बोली- अजी! आप तो मूरख के मूरख ही रहे!
अरे! जब दौडना ही तो बस के पीछे क्यों दौडे! सिर्फ पाँच रूपये बचे! यदि टेक्सी के पीछे दौडते तो पचास रूपये बच जाते! जटाशंकर ने अपना माथा पीट लिया।
पाँच बचे, इसका सुख नहीं। पचास नहीं बचे, इसका दु:ख है। जबकि पाँच रूपये बचे, यह यथार्थ है.... पचास रूपये बचने की बात कल्पना है। यथार्थ को अस्वीकार कर काल्पनिक दु:ख के लिये जो रोते हैं, वे अपनी जिन्दगी व्यर्थ खोते हैं।

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

48. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा

48. जटाशंकर  -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा
जटाशंकर स्कूल में पढता था। जाति का वह रबारी था। भेड बकरियों को चराता था। छोटे-से गाँव में वह रहता था।
अध्यापक ने गणित समझाते हुए क्लाँस में बच्चों से प्रश्न किया- बच्चों! मैं तुम्हें गणित का एक सवाल करता हूँ।
एक बाडा है। बाडे में पचास भेडें हैं। उनमें से एक भेड ने बाड कूदकर छलांग लगाली, तो बताओ बच्चों! उस बाडे में पीछे कितनी भेडें बची।
जटाशंकर ने हाथ उँचा किया। अध्यापक ने प्रेम से कहा- बताओ! कितनी भेडें बची।
जटाशंकर ने कहा- सर! एक भी नहीं!
अध्यापक ने लाल पीले होते हुए कहा- इतनी सी भी गणित नहीं आती। पचास में से एक भेड कम हुई तो पीछे उनपचास बचेगी न!
जटाशंकर ने कहा- यह आपकी गणित है। पर मैं गडरिया हूँ! भेडों को चराता हूँ! और भेडों की गणित मैं जानता हूँ! एक भेड ने छलांग लगायेगी और सारी भेडें उसके पीछे कूद पडेगी। वह न आगे देखेगी न पीछे! सर! उन्हें आपकी गणित से कोई लेना देना नहीं।
भेडों की अपनी गणित होती है। इसी कारण बिना सोचे अनुकरण की प्रवृत्ति को भेड चाल कहा जाता है। वहाँ अपनी बुद्धि का प्रयोग नहीं होता। अपनी सोच के आधार पर गुण दोष विचार कर जो निर्णय करता है, वही व्यक्ति अपने जीवन को सफल करता है।

46. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा

जटाशंकर चाय पीने के लिये घटाशंकर की होटल पर पहुँचा था। थोडा आदत से लाचार था। हर काम में कमी निकालने का उसका स्वभाव था। उसके इस स्वभाव से सभी परेशान थे।
जहाँ खाना खाने जाता, वहाँ कम नमक या कम मिर्च की शिकायत करके पैसे कम देने का प्रयास करता!
घटाशंकर ने उसे चाय का कप प्रस्तुत किया। धीरे धीरे वह चाय पीता जा रहा था। और मानस में कोई नया बहाना खोजता जा रहा था।
पूरी चाय पीने के बाद वह क्रोध्ा में फुंफकारते हुए घटाशंकर के पास पहुँचा और जोर से चीखा- चाय में चीनी इतनी कम!
घटाशंकर धीमे से बोला- एक काम करो! सामने शक्कर की दुकान है, उस ओर मुँह कर लो! शक्कर से स्वाद से तुम्हारा मुँह मीठा हो जायेगा।
जटाशंकर ने विचार किया- यह उत्तर जोरदार दिया है। शक्कर की दुकान की ओर करने से मुँह मीठा कैसे हो जायेगा!
घटाशंकर ने कहा- चलो! पैसे लाओ!
जटाशंकर ने कहा- भैया! सामने ही स्टेट बैंक ऑफ़  बीकानेर एण्ड जयपुर का कार्यालय है, उसकी ओर मुँह करलो, पैसे मिल जायेंगे।
घटाशंकर खिसिया कर रह गया। उसका तर्क उसी को भारी पड गया था।
केवल मुँह उसकी ओर से करने से काम नहीं होता! धर्म की ओर केवल मुँह करने से या बातें करने से काम नहीं होता! उसे तो आचरण में लाना होता है, तभी जीवन को ऊँचाईयाँ प्राप्त होती है।

शनिवार, 1 सितंबर 2012

50. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा

जटाशंकर परेशान था। उसकी स्मरण शक्ति बहुत कमजोर थी। इस कारण रोज उसे फटकार सुननी पडती थी। जो वस्तुऐं मंगवाई जाती, वह तो लाता नहीं था। और कई बार तो ऐसा होता था कि एक ही वस्तु को बार बार ले आता था। वह यह भूल जाता था कि यह तो मैं पहले ला चुका हूँ।
अपनी समस्या से वह बहुत परेशान था। आखिर वह थक हार कर एक बार एक सुप्रसिद्ध डॉक्टर के पास पहुँचा।
उसने निवेदन भरे स्वरों में कहा- डॉक्टर साहब! मेरी समस्या शारीरिक नहीं है। मैं बहुत जल्दी हर बात भूल जाता हूँ। याद नहीं रहता। आप कोई ऐसी दवा दीजिये ताकि मेरी स्मरण शक्ति तीव्र हो जाय।
डॉक्टर ने कहा- चिंता न करो। अभी अभी पन्द्रह दिन पहले ही अमेरिका में जोरदार शोध हुई है, एक ताकतवर दवा तैयार हुई है। वह दवा एक सप्ताह में केवल एक बार खानी होगी। उस दवा का असर एक सप्ताह तक कायम रहेगा। स्मरण शक्ति जोरदार हो जायेगी। बिल्कुल अनुभव की गई दवा है।
मेरे पास तीन दिन पहले ही वह दवा आई है।
जटाशंकर बहुत प्रसन्न हुआ। उसने कहा- डॉक्टर साहब! पैसा कितना भी लगे, चिन्ता नहीं, पर दवा कारगर होनी चाहिये।
डॉक्टर ने कहा- एक काम करो, कल इसी समय आ जाना। मैं तुम्हें दवा दे दूंगा।
जटाशंकर ने कहा- डॉक्टर साहब! कल आना भूल गया तो! इसलिये एक काम करो। पैसे मैं साथ लेकर आया हूँ। वह दवा आप आज ही मुझे दे दीजिये।
डाँक्टर ने कहा- नहीं! आज मैं तुम्हें नहीं दे सकता।
क्यों! आज क्यों नहीं!’ जटाशंकर ने तर्क किया।
डॉक्टर ने कहा- नहीं! और कोई बात नहीं है। असल में वह दवा रखकर मैं जरा भूल गया हूँ। मुझे याद नहीं है कि वह दवा कहाँ रखी है? इसलिये मैं कल तुम्हें बुला रहा हूँ। ढूंढकर कल दवा तैयार रखूंगा।
यह सुनते ही जटाशंकर ने रवाना होने में ही लाभ समझा।
जो डॉक्टर खुद अपना इलाज न कर सका, वह दूसरों का इलाज क्या करेगा? इस दुनिया में हम दूसरों का ही तो इलाज करते हैं। अपने बारे में तो सोचने का वक्त ही नहीं मिलता।

45. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा


जटाशंकर सिगरेट बहुत पीता था। उसकी पत्नी उसे बहुत समझाती थी। सिगरेट पीने से केंसर जैसी बीमारी हो जाती है! फेफडे गल जाते हैं! घर में थोडा धूआँ फैल जाय तो दीवार कितनी काली हो जाती है! फिर सिगरेट का धुआँ अपने पेट में डालने पर हमारा आन्तरिक शरीर कितना काला हो जाता होगा! धूऐं की वह जमी हुई परत मौत का कारण हो सकती है। इसलिये आपको सिगरेट बिल्कुल नहीं पीनी चाहिये।
एक दिन जटाशंकर की पत्नी अखबार पढ रही थी। उसमें सिगरेट से होने वाले नुकसानों की विस्तार से व्याख्या की गई थी। वह दौडी दौडी अपने पति के पास गई और हर्षित होती हुई कहने लगी- देखो! अखबार में क्या लिखा है? सिगरेट पीने से कितना नुकसान होता है?
जटाशंकर ने अखबार हाथ में लेते हुए कहा- कहाँ लिखा है! जरा देखूं तो सही!
उसने अखबार पढा! पत्नी सामने खडी उसके चेहरे के उतार चढाव देखती रही!
कुछ ही पलों के बाद जटाशंकर जोर से चिल्लाया- आज से बिल्कुल बंद! कल से बिल्कुल नहीं!
पत्नी अत्यन्त हर्षित होती हुई बोली- क्या कहा! कल से सिगरेट पीना बिल्कुल बंद! अरे वाह! मजा आ गया।
जटाशंकर चिल्लाते हुए बोला- अरी बेवकूफ! सिगरेट बंद का किसने कहा! मैं अखबार बंद करने का कह रहा हूँ!
सिगरेट के विरोध में ऐसा छापते हैं! ऐसे अखबार को हरगिज नहीं मंगाना है। न तुम पढोगी, न तुम मुझे बंद करने के लिये कहोगी!
अखबार बंद करने से सिगरेट की खराबी छिप नहीं जाती। विकारों को ही देशनिकाला देना होता है। यही जिन्दगी का सम्यक् परिवर्तन है।

मंगलवार, 28 अगस्त 2012

44 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

जटाशंकर के घर कुछ काम था। एक बडा गड्ढा खुदवाना था। उसने मजदूर रख लिया और काम सौंप कर अपने काम पर चला गया। उसने सोचा था कि जब मैं शाम घर पर जाउँगा, तब तक काम पूरा हो ही जायेगा। शाम जब घर पर लौटा तो उसने देखा कि मजदूर ने गड्ढा तो बिल्कुल ही नहीं खोदा है।
उसने डाँटते हुए कहा- पूरा दिन बेकार कर दिया... तुमने कोई काम ही नहीं किया! क्या करते रहे दिन भर!
मजदूर ने जवाब दिया- हुजूर! गड्ढा खोदने का काम मैं शुरू करने ही वाला था कि अचानक एक प्रश्न दिमाग में उपस्थित हो गया। आपने गड्ढा खोदने का तो आदेश दे दिया पर जाते जाते यह तो बताया ही नहीं कि गड्ढे में से निकलने वाली मिट्टी कहाँ डालनी है? इसलिये मैं काम शुरू नहीं कर पाया और आपका इन्तजार करता रहा।
जटाशंकर ने कहा- इसमें सोचने की क्या बात थी? अरे इसके पास में एक और गड्ढा खोद कर उसमें मिट्टी डाल देता!
उधर से गुजरने वाले लोग जटाशंकर की इस बात पर मुस्कुरा उठे।
हमारा जीवन भी ऐसा ही है। एक गड्ढे को खोदने के लिये दूसरा गड्ढा खोदते हैं फिर उसकी मिट्टी डालने के लिये तीसरा गड्ढा खोदते हैं। यह काम कभी समाप्त ही नहीं होता।
संसार की हमारी क्रियाऐं ऐसी ही है। हर जीवन नये जीवन का कारण बनता है। साध्ाक तो वह है जो जीवन अर्थात् जन्म मरण की इतिश्री करता है।

शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

43. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

जटाशंकर नौकरी की तलाश में घूम रहा था। वह समझ रहा था कि यदि मुझे शीघ्र ही नौकरी नहीं मिली तो घर का चूल्हा जलना बंद हो जायेगा।
चलते चलते वह एक सर्कस वाले के पास पहुँचा। सर्कस के मैनेजर ने कहा- मैं तुम्हें एक काम दे सकता हूँ। रूपये तुम्हें पूरे मिलेंगे।
जटाशंकर ने कहा- हुजूर! आप जो भी काम सौंपेंगे, मैं करने के लिये तैयार हूँ। बताइये मुझे क्या काम करना होगा?
मैनेजर ने कहा- एक शेर की हमारे पास कमी हो गई है। तुम्हें शेर की खाल पहन कर शेर का अभिनय करना है। बस! थोड़ी देर का काम है। थोडा चीखना है! दहाड लगानी है! आधे घंटे का काम है। पिंजरे में घूमना है। दर्शकों का मनोरंजन हो जायेगा। और तुम्हें पैसे मिल जायेंगे। महीने भर तो यह काम करो, फिर बाद में देखेंगे।
जटाशंकर थोड़ा हैरान हुआ कि शेर का काम मुझे करना पडेगा! पर सोचा कि पैसे तो मिल ही रहे हैं न! फिर क्या चिंता!
दूसरे दिन से समय पर उसने पिंजरे में बैठकर शेर की खाल पहन ली। दर्शकों का जोरदार मनोरंजन किया। नकली शेर तो ज्यादा ही दहाडता है। उसने जो दहाड लगाई, जो उछला, कूदा, लोग आनंदित हो गये।
मैनेजर ने प्रसन्न होकर उसे पुरस्कृत भी किया।
यह क्रम लगातार चलता ही रहा।
एक दिन वह दर्शकों के बीच जालियों से बने पिंजरे में दहाड लगा रहा था कि तभी उस पिंजरे में दूसरे शेर ने प्रवेश किया। असल में उस दिन दो शेरों के प्रदर्शन का कार्यक्रम था।
दूसरा शेर दांत निकाल कर, आँखें तरेर कर जोरदार दहाड रहा था।
दूसरे असली शेर को देखकर नकली शेर मिस्टर जटाशंकर डर गया। उसने विचार किया- लोग मुझे असली शेर समझ सकते हैं पर यह असली शेर तो मुझे सूंघते ही समझ जायेगा कि मैं शेर नहीं बल्कि आदमी हूँ।
उसकी तो मारे डर के घिग्घी बंध गई। उसने तो तुरंत आव देखा न ताव, छलांग लगाई और शेर की खाल उतार कर चारों ओर लगी जालियों पर तेजी से चढ़ गया। लोग चक्कर में पडे कि यह शेर आदमी कैसे हो गया!
जटाशंकर तो जाली पर चढकर जोर जोर से ‘बचाओ बचाओ चीखने लगा।
इतने में दूसरे शेर ने शेर की खाल थोडी सी उतारते हुए कहा- भैया! डर मत! मैं शेर नहीं हूँ।
लोग यह तमाशा देखकर दोहरे हो गये कि यहाँ तो दोनों ही शेर नकली है।
असली असली ही होता है... और नकली नकली! नकली ज्यादा टिकाउ नहीं हो सकता। उसकी तो पोल खुल ही जाती है। हमें अपना जीवन असलियत के आधार पर जीना है। नकली जीवन मात्र कर्मबंधन का ही कारण है।

शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

42. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

जटाशंकर परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गया था। अपना कार्ड लेकर मुँह लटका कर रोता हुआ जब घर पहुँचा तो पिताजी ने रोने का कारण पूछा- हाथ में रखा प्रगति पत्र आगे करते हुए कहा- मैं फेल हो गया हूँ। इसलिये रो रहा हूँ।
पिताजी को भी क्रोध तो बहुत आया। साल भर गँवा दिया। यदि मेहनत करता तो निश्चित ही पास हो जाता। इधर उधर घूमता रहा। पढाई की नहीं, तो फेल तो होओगे।
पर सोचा- मेरा लडका वैसे ही उदास है। रो रहा है। यदि मैंने भी क्रोध में इसे डाँटना प्रारंभ कर दिया तो पता नहीं यह क्या कर बैठेगा? कहीं उल्टी सीधी हरकत कर दी तो मैं अपने बेटे से हाथ खो बैठूंगा।
इसलिये सांत्वना देते हुए पिताजी ने कहा- बेटा जटाशंकर! रो मत! तुम्हारे भाग्य में फेल होना ही लिखा था। इसलिये धीरज धर।
सुनते ही जटाशंकर ने अपना रोना बंद कर दिया और मुस्कुराते हुए कहा- पिताजी! मैं इस बात पर बहुत प्रसन्न हूँ कि मेरे भाग्य में फेल होना ही लिखा था। अच्छा हुआ जो मैंने मेहनत पूर्वक पढाई नहीं की। यदि करता तो भी फेल हो जाता और इस प्रकार मेरी सारी मेहनत बेकार हो जाती, मिट्टी में मिल जाती।
मेहनत न करने का दोष भाग्य पर नहीं ढाला जा सकता। भाग्य तो पुरूषार्थ का ही परिणाम है। मेहनत से जी चुराने वाला सदा अनुत्तीर्ण होता है। और दोष अपने आलस्य को नहीं, बल्कि भाग्य को देकर राजी होता है।

शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

41. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.


जटाशंकर परमात्मा के मंदिर में पहुँचा था। चावल के स्वस्तिक की रचना करने के बाद उसने अपनी जेब में से एक अठन्नी निकाली और अच्छी तरह निरख कर भंडार में डाल दी। एक लडका उसे देख रहा था।
उसने जटाशंकर से कहा- सेठजी! यह तो खोटी अठन्नी है। भगवान के पास भी ऐसा छल कपट करते हो! मंदिर में खोटी अठन्नी चढाते हो!
जटाशंकर ने कहा- अरे! तुम्हें पता नहीं है। चिलातीपुत्र, इलायचीकुमार, दृढ़प्रहारी जैसे खोटे लोग भी परमात्मा की शरण को प्राप्त कर सच्चे हो गये थे... तिर गये थे.... तो क्या मेरी खोटी अठन्नी परमात्मा की शरण को पाकर सच्ची नहीं बन जायेगी!
वह लडका तो देखता ही रह गया।
अपने तर्क के आधार पर परमात्मा के मंदिर को भी अपने छल कपट का हिस्सा बनाते हैं। और अपनी बुद्धि पर इतराते हैं। यह स्वस्थ मानसिकता नहीं है।

बुधवार, 8 अगस्त 2012

40. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.


जटाशंकर को बैंक में पहरेदारी की नौकरी मिली थी। होशियार था तो कम, पर अपने आप को समझता ज्यादा था।
शाम के समय में बैंक मैनेजर ने अपने सामने ताला लगवाया। उस पर सील लगवाई और चौकीदार जटाशंकर से कहा- ध्यान रखना! सील कोई तोड न दें। पूरी रात चौकीदारी करना।
जटाशंकर ने अपनी मूंछों पर अकडाई के साथ हाथ फेरते हुए कहा- आप जरा भी चिंता न करें। इस सील का बाल भी बांका नहीं होने दूंगा।
दूसरे दिन सुबह बैंक मैनेजर ने आकर देखा तो पता लगा कि रात लुटेरों ने बैंक को लूंट लिया है। क्रोध में उसने जटाशंकर को बुलाया और कहा- क्या करते रहे तुम रात भर! यहाँ पूरी बैंक ही लुट गई।
जटाशंकर ने कहा- हजूर! आपने मुझे सील की सुरक्षा का कार्य सौंपा था। मैंने उसे पूरी तरह सुरक्षित रखा है। आप देख लें।
पर चोर तो दीवार में सेंध मार कर भीतर घुसे हैं।
- हुजूर! यह तो मैं देख रहा था। दीवार को तोडते भी देखा, अंदर जाते भी देखा, सामान लूटते भी देखा, सामान ले जाते भी देखा।
- तो फिर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे, उन्हें रोकना नहीं था!
- हुजूर! आपने मुझे सील की सुरक्षा की जिम्मेवारी सौंपी थी। मैं इधर उधर कैसे जा सकता था!
मैनेजर ने अपना माथा पीट लिया।

रविवार, 5 अगस्त 2012

39. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.


जटाशंकर परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गया था। अपना कार्ड लेकर मुँह लटका कर रोता हुआ जब घर पहुँचा तो पिताजी ने रोने का कारण पूछा- हाथ में रखा प्रगति पत्र आगे करते हुए कहा- मैं फेल हो गया हूँ। इसलिये रो रहा हूँ।
पिताजी को भी क्रोध तो बहुत आया। साल भर गँवा दिया। यदि मेहनत करता तो निश्चित ही पास हो जाता। इधर उधर घूमता रहा। पढाई की नहीं, तो फेल तो होओगे।
पर सोचा- मेरा लडका वैसे ही उदास है। रो रहा है। यदि मैंने भी क्रोध में इसे डाँटना प्रारंभ कर दिया तो पता नहीं यह क्या कर बैठेगा? कहीं उल्टी सीधी हरकत कर दी तो मैं अपने बेटे से हाथ खो बैठूंगा।
इसलिये सांत्वना देते हुए पिताजी ने कहा- बेटा जटाशंकर! रो मत! तुम्हारे भाग्य में फेल होना ही लिखा था। इसलिये धीरज धर।
सुनते ही जटाशंकर ने अपना रोना बंद कर दिया और मुस्कुराते हुए कहा- पिताजी! मैं इस बात पर बहुत प्रसन्न हूँ कि मेरे भाग्य में फेल होना ही लिखा था। अच्छा हुआ जो मैंने मेहनत पूर्वक पढाई नहीं की। यदि करता तो भी फेल हो जाता और इस प्रकार मेरी सारी मेहनत बेकार हो जाती, मिट्टी में मिल जाती।
मेहनत न करने का दोष भाग्य पर नहीं ढाला जा सकता। भाग्य तो पुरूषार्थ का ही परिणाम है। मेहनत से जी चुराने वाला सदा अनुत्तीर्ण होता है। और दोष अपने आलस्य को नहीं, बल्कि भाग्य को देकर राजी होता है।

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

38. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.


जटाशंकर बस में यात्रा कर रहा था। वह तेजी से कभी बस में आगे की ओर जाता, कभी पीछे की ओर! बस आधी खाली होने पर भी वह बैठ नहीं रहा था। कुछ यात्रियों ने कहा भी कि भैया! बैठ जाओ! सीट खाली पडी है। जहाँ मरजी, बैठ जाओ! पर वह सुना अनसुना कर गया।
आखिर कुछ लोगों से रहा नहीं गया। उन्होंने उसे पकड कर पूछना शुरू किया- तुम चल क्यों रहे हो? आखिर एक स्थान पर बैठ क्यों नहीं जाते?
उसने जवाब दिया! मुझे बहुत जल्दी है। मुझे जल्दी से जल्दी अपनी ससुराल पहुँचना है। वहाँ मेरी सासुजी बीमार है। मेरे पास समय नहीं है। इसलिये तेजी से चल रहा हूँ।
भैया मेरे! बस जब पहुँचेगी तब पहुँचेगी। बस में तुम्हारे चलने का क्या अर्थ है? बस में तुम चल तो कितना ही सकते हो...चलने के कारण थक भी सकते हो... पर पहुँच कहीं नहीं सकते।
जब भी देखोगे, अपने आप को बस में ही पाओगे... वहीं के वहीं पाओगे।
वह चलना व्यर्थ है, जो कहीं पहुँचने का कारण नहीं बनता। हमारी यात्रा भी ऐसी होनी चाहिये जिसका कोई परिणाम होता है। वही यात्रा सफल है।

37. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

मिस्टर घटाशंकर के गधे को बुखार आ गया था। बुखार बहुत तेज था। गधा जैसे जल रहा था। न कोई काम कर पा रहा था जटाशंकर को अपने गधे से स्वाभाविक रूप से बहुत प्रेम था। वह परेशान हो उठा।
उसने डोक्टर से इलाज करवाने का सोचा। मुश्किल यह थी कि उस गाँव में पशुओं का कोई डोक्टर न था। अत: सामान्य डोक्टर को ही बुलवाया गया।
डोक्टर जटाशंकर ने आते ही गधे का मुआयना किया। उसने देखा- बुखार बहुत तेज है। उसे पशुओं के इलाज का कोई अनुभव नहीं था।
उसने अपना अनुमान लगाते हुए सोचा- सामान्यत: किसी व्यक्ति को बुखार आता है तो उसे एक मेटासिन या क्रोसिन दी जाती है। चूंकि यह गधा है। इसके शरीर का प्रमाण आदि का विचार करते हुए उसने 10 गोलियाँ मेटासिन की इसे देने का तय किया।
घटाशंकर भागा भागा मेटासिन की 10 गोलियाँ ले आया। अब समस्या यह थी कि इसे गधे को खिलाये कैसे?
घटाशंकर ने घास में गोलियाँ डाल कर गधे को खिलानी चाही। पर गधा बहुत होशियार था। उसने अपने मालिक को जब घास में कुछ सफेद सफेद गोलियाँ डालते देखा वह सशंकित हो गया। उसने सोचा- कुछ गडबड है। मैं इस घास को हरगिज नहीं खाउँगा, पता नहीं मेरे मालिक ने इसमें क्या डाल दिया है। जरूर यह सारी गडबड इस दूसरे आदमी की है।
घटाशंकर ने बहुत प्रयास किया कि वह गोलियों वाली घास खाले। पर गधा टस से मस न हुआ
आखिर हारकर घटाशंकर ने डोक्टर जटाशंकर से पूछा- अब क्या किया जाये? वह रूआँसा होकर कहने लगा- डोक्टर साहब! इसे गोलियाँ आपको कैसे भी करके खिलानी है? यह काम आप ही कर सकते हैं। मैं आपको दुगुनी फीस दूंगा।
दुगुनी फीस प्राप्त होने के निर्णय से प्रसन्न होते हुए जटाशंकर ने कुछ सोच कर योजना बनाई। उसने कहा- तुम एक काम करो। एक गोल भूंगली ले आओ। भूंगली के इस सिरे पर 10 गोलियाँ रखो। फिर भूंगली के सामने वाले सिरे को गधे के गले में अन्दर तक डाल दो। फिर भूंगली के इधर वाले सिरे से मैं जोर से फूंक मारता हूँ। फिर देखो, सारी गोलियाँ सीधी गधे के पेट में चली जायेगी।
अपनी योजना पर राजी होते हुए उसने इसे क्रियान्वित करना प्रारंभ किया। घटाशंकर दौडकर चूल्हा फूंकने वाली भूंगली ले आया।
डोक्टर जटाशंकर ने भूंगली गधे के मुँह में डालने के बाद इधर वाले सिरे पर गोलियाँ रखनी प्रारंभ की।
गधा अचरज में पड गया। यह आदमी मेरे साथ क्या कर रहा है? वह चौकन्ना हो उठा।
डोक्टर ने गोलियाँ रखकर भूंगली का इधर वाला सिरा अपने मुँह में डाल दिया और जोर से फूंक मारने की तैयारी करने लगा।
वह फूंक मारे, उससे पहले ही भडक कर गधे से जोर से एक फूंक मार दी। गधे की फूंक से सारी गोलियाँ डोक्टर के पेट में पहुँच गई।
डोक्टर गधे को तो न खिला सका। सारी गोलियाँ उसी का आहार बन गई।
योजना बनाना बहुत आसान है। पर बहुत बार बाजी पलट कर उसी को लपेट में ले लेती है।

बुधवार, 1 अगस्त 2012

36. जटाशंकर         -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.

घटाशंकर की विद्वत्ता दूर दूर तक प्रसिद्ध थी। पर लोगों के मन में इस बात का रंज था कि पंडितजी घोर अहंकारी है। किसी की भी बात को काटने में ही वे अपनी विद्वत्ता को सार्थक मानते थे।

एक बार जटाशंकर ने उन्हें भोजन करने का निमंत्रण दिया। पंडित प्रवर ज्योंहि भोजन करने के लिये बैठे, जटाशंकर ने उन्हें याद दिलाते हुए कहा- आप हाथ धोना भूल गये हैं, चलिये पहले हाथ धो लीजिये।

पंडितजी को भी अपनी भूल तो समझ में आ गई कि भोजन की थाली पर आने से पूर्व ही हाथ धो लेने चाहिये थे। पर अब क्या करें? कोई और मुझे मेरी गलती बताये, यह मुझे मंजूर नहीं है।

उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया- अरे यजमान! क्या तुम पानी से हाथ धोने की बात करते हो। हमारे अन्दर तो ज्ञानगंगा लगातार बह रही है। इसलिये उस जल से हम सदा स्वच्छ ही रहते हैं। क्या इस बाहर के पानी से हाथ धोना!

जटाशंकर इस उत्तर से अन्दर ही अन्दर बहुत कुपित हुआ। उसने इस उत्तर का प्रत्युत्तर देने का तय कर लिया।

भोजन में भरपूर दाल बाटी खा लेने के बाद पंडित प्रवर घटाशंकरजी को गहरी निद्रा आने लगी। वे खूंटी तानकर सो गये। सोने से पहले यजमान जटाशंकर को कहा- भैया! पानी का लोटा भर कर सिरहाने के पास रख देना।

जटाशंकर के दिमाग में पंडितजी का उत्तर तैर रहा था।

उसने कमरे में पंडितजी को सुलाकर दरवाजा बाहर से बंद कर दिया और पास वाले कमरे में जाकर सो गया।

एक घंटे के विश्राम के बाद दो बजे पंडितजी की आँख खुली। उन्हें जोरदार प्यास लगी थी। पानी पीने के लिये लोटा हाथ में लिया तो  देखा  कि लोटा तो एकदम खाली था। उसे यजमान के प्रति बडा क्रोध आया। मैंने कहा था कि लोटा भर कर रखना। पर इसने तो रखा ही नहीं।

उन्होंने दरवाजा खटखटाना शुरू किया। जटाशंकर सुन रहा था, पर दरवाजा नहीं खोला। आखिर पंडितजी जोर से चिल्लाने लगे। प्यास खतरनाक रूप से गहरी हो गई।

आखिर चार बजे जटाशंकर ने दरवाजा खोला। और कृत्रिम क्षमायाचना करते हुए कहने लगा- माफ करना पंडितजी, जरा आँख लग गई थी। फरमाईये कोई काम तो नहीं!

पंडितजी ने आँखें तरेरते हुए कहा- काम पूछता है। प्यासा मार दिया। एक बूंद पानी लोटे में नहीं था।

जटाशंकर ने कहा- अरे पंडितजी! आप क्या पानी पानी करते हो! ज्ञानगंगा आपके भीतर ही बह रही है। प्यास लगी थी तो एक लोटा वहीं से भरकर पी लेते। क्या बाहर का पानी पीते हो! अंदर के ज्ञानघट का पानी पीजिये।

अपने नहले पर इस दहले को सुनते ही पंडितजी को बात समझ में आ गई। उन्होंने क्षमायाचना करने में सार समझा।

जीवन में व्यवहार जरूरी है। दार्शनिकता का संबंध चिंतन से है। जबकि जीवन तो व्यवहार से चलता है।

रविवार, 29 जुलाई 2012

35 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

35 जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.

जटाशंकर की माता सामायिक कर रही थी। दरवाजे के ठीक सामने ही उसने अपना आसन लगाया था। सामायिक लेकर वह माला हाथ में लेकर बैठ गयी थी। उसकी बहू पानी लेने के लिये कुएं पर जाने की तैयारी कर रही थी। तब नल घरों में लगे नहीं थे। बहूजी ने घडा हाथ में लिया... इंडाणी भी ले ली..। पर बहुत खोजने पर भी उसे पानी छानने के लिये गरणा नहीं मिला। उसने इधर से उधर पूरा कमरा छान मारा... पर गरणा नहीं मिला।
सासुजी सामायिक में माला फेरते फेरते भी बहू को देख रही थी। वह समझ गयी थी कि बहू को गरणा नहीं मिला है। सासुजी को सामने ही गरणा नजर आ रहा था। पर बहू को नहीं दीख रहा था। सासुजी ने माला फेरते फेरते हूं हूं करते हुए कई बार इशारा किया। पर बहूजी समझ नहीं पाई।
इशारा करते सासुजी को बहूजी ने देखा तो आखिर परेशान होकर कह ही दिया कि मांजी! अब आप बताही दो कि गरणा कहाँ रखा है? मुझे देर हो जायेगी पानी लाने में... फिर दिन भर के हर काम में देर होती ही रहेगी।
सासुजी साधु संतों के प्रवचनों में जाने वाली थी। वह जानती थी कि सामायिक में सांसारिक वार्तालाप किया नहीं जाता। धार्मिक शब्दों का ही उच्चारण किया जा सकता है। अब गरणा मेरे सामने पडा है, पर बहू को बताउँ कैसे?
आखिर उसने युक्ति काम में ली। उसने एक पद्य की रचना की। वह जोर से बोलने लगी!
अरिहंत देव को शरणो।
खूंटी पर पड्यो है गरणो!
अरिहंत परमत्मा का नाम लेकर अपने धार्मिक मन को संतोष भी दे दिया और गरणे का स्थान बताकर बहू का समाधान भी कर लिया।
यह गली निकालने वाली बात है। यह धार्मिक प्रवृत्ति नहीं कही जा सकती। हम गलियाँ निकालने में माहिर है पर इससे मूल सिद्धांतों के साथ धोखा कर बैठते हैं।

34 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

34 जटाशंकर   -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.
जटाशंकर ठग था। ठगी करके अपना गुजारा चलाता था। वह घी बेचने का काम करता था। एक दिन उसे रास्ते घटाशंकर मिल गया। जटाशंकर ने सोचा- मैं इसे पटा लूं और घी बेच दूं। उसे पता नहीं था कि घटाशंकर भी पहुँचा हुआ ठग है। वह भी यह विचार कर रहा था कि जटाशंकर को पटा कर इसे सोने की अंगूठी बेच दूं।
जटाशंकर ने घटाशंकर से और घटाशंकर ने जटाशंकर से परिचय साधा। दोनों आपस में बात करने लगे। घटाशंकर ने पूछा- भैया! क्या हाल चाल है?
जटाशंकर ने जवाब दिया- बहुत मुश्किल काम हो रहा है। जब से डालडा लोग खाने लगे हैं, असली घी को तो कोई पूछता ही नहीं है। मैं सुबह से घूम रहा हूँ गाय का घी लेकर... पर कोई खरीददार नहीं मिला। देखो, कितना सुगंधदार, शानदार, दानेदार घी है! यों कहकर थोडा-सा घी घटाशंकर की अंगुली पर धरा।
घटाशंकर बोला- मेरा भी यही हाल है। मैं सोने के आभूषण बेचता हूँ! पर सत्यानाश हो इन नकली आभूषणों का! जब से नकली आभूषण बाजार में आये हैं, लोग वही पहनने लगे हैं। असली सोने के आभूषणों को कोई हाथ भी नहीं लगाता। देखो, कितना सुन्दर यह आभूषण है। यह कहकर उसे सोने की अंगूठी दिखाई।
दोनों ने एक दूसरे को पटाना प्रारंभ किया। घटाशंकर ने जटाशंकर से घी खरीद लिया। और जटाशंकर ने घटाशंकर से अंगूठी!
दोनों अपने मन में बडे राजी हुए। सोचते थे अपने मन में कि मैंने उसे ठगा।
घर जाने के बाद जब घटाशंकर ने घी का डिब्बा दूसरे डिब्बे में खाली किया तो पाया उपर दो अंगुल ही घी था, उसके नीचे तो पानी भरा था।
जटाशंकर ने सोने के अंगूठी को जब किसी सुनार को दिखाई तो पता लगा कि अंगूठी तो पीतल की है, उपर सोने का मात्र धूआं है।
दोनों चिल्लाने लगे कि मुझे ठग लिया है।
यह दुनिया ऐसी ही है। हम सोचते हैं कि मैंने ठगा, पर हकीकत है कि हम ठगे गये। यहाँ हर व्यक्ति एक दूसरे को ठग रहा है। और राजी हो रहा है। सत्य की आँख खुले तो जिंदगी बदल जाये।

शनिवार, 28 जुलाई 2012

33. जटाशंकर उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

33. जटाशंकर  उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

 जटाशंकर पढाई कर रहा था। पढाई में मन उसका और बच्चों की भाँति कम ही लगता था। पिताजी बहुत परेशान रहते थे। बहुत बार डाँटते भी थे। पर वांछित परिणाम आया नहीं था। वह बहाना बनाने में होशियार था।
आखिर पिताजी ने तय कर लिया कि वे अब उसे डांटेंगे नहीं, बल्कि प्रेम से समझायेंगे।
उन्होंने अपने बच्चे को अपने पास बिठाकर तरह तरह से समझाया कि बेटा! यही उम्र है पढाई की! मूर्ख व्यक्ति की कोई कीमत नहीं होती।
दूसरे दिन उन्होंने देखा कि बेटा पढ तो रहा है। पर कमर पर उसने रस्सी बांध रखी है।
यह देखकर पिताजी बडे हैरान हुए।
उन्होंने पूछा- जटाशंकर! यह तुमने रस्सी क्यों बाँध रखी है?
-अरे पिताजी! यह तो मैं आपकी आज्ञा का पालन कर रहा हूँ।
-अरे! मैंने कब कहा था कि रस्सी बांधनी चाहिये!
-वाह पिताजी! कल ही आपने मुझे कहा था कि बेटा! अब खेलकूद की बात छोड और कमर कस कर पढाई कर!
सो पिताजी कमर कसने के लिये रस्सी तो बांधनी पडेगी न!
पिताजी ने अपना माथा पीट लिया।
शब्द वही है, पर समझ तो हमारी अपनी ही काम आती है। कहा कुछ जाता है, समझा कुछ जाता है, किया कुछ जाता है! ऐसा जहाँ होता है, वहाँ जिंदगी दुरूह और कपट पूर्ण हो जाती है। मात्र शब्दों को नहीं पकडना है... भावों की गहराई के साथ तालमेल बिठाना है।

शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

32 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

32 जटाशंकर       -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.

जटाशंकर सेना में ड्राइवर था। घुमावदार पहाड़ी रास्ते में एक दिन वह ट्रक चला रहा था कि उसकी गाड़ी खाई में गिर पडी। वह तो किसी तरह कूद कर बच गया परन्तु गाडी में रखा सारा सामान जल कर नष्ट हो गया।
सेना ने जब इस घटना की जाँच की तो सबसे पहले जटाशंकर से पूछा गया कि तुम सारी स्थिति का वर्णन करो कि यह दुर्घटना कैसे हुई।
जटाशंकर हाथ जोड कर कहने लगा- अजी! मैं गाड़ी चला रहा था। रास्ते में मोड बहुत थे। गाड़ी को पहले दांये मोडा कि बांये हाथ को मोड आ गया। मैंने गाडी को फिर बांये मोडा। फिर दांये मोड आ गया। मैंने दांयी ओर गाडी को काटा। कि फिर बांयी ओर मोड आ गया, मैंने फिर गाडी को बांयी ओर मोडा। दांये मोड, फिर बांये मोड, फिर दांये मोड, फिर बांये मोड, ऐसे दांये से बांये और बांये से दांये मोड आते गये, मैं गाडी को मोडता रहा! मैं गाडी को मोडता रहा और मोड आते रहे। मोड आते रहे... मैं मोडता रहा! मैं मोडता रहा... मोड आते रहे।
एक बार क्या हुआ जी कि मैंने तो गाडी को मोड दिया पर मोड आया ही नहीं! बस गाडी में खड्ढे में जा गिरी!
यह अचेतन मन की प्रक्रिया है। हम बहुत बार अभ्यस्त हो जाते हैं। और जिसमें अभ्यस्त हो जाते हैं, उस पर से ध्यान हट जाता है। फिर मशीन की तरह हाथ काम करते हैं, दिमाग भी मशीन की तरह काम करने लग जाता है। फिर मोड आये कि नहीं आये... गाडी को दांये बांये मोडने के लिये हाथ अभ्यस्त हो जाते हैं। हम अपने जीवन को इसी तरह जीते हैं। हर कदम उठने से पहले उस कदम के परिणामों का चिंतन जरूरी है, यही जागरूकता है।

गुरुवार, 26 जुलाई 2012

31. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

31. जटाशंकर         -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.

मिस्टर जटाशंकर का व्यापार चल नहीं रहा था। कोई युक्ति समझ में आ नहीं रही थी। क्या करूँ कि मैं अतिशीघ्र करोड़पति बन जाऊँ! आखिर उसने अपना दिमाग लडाकर एक ठगी का कार्य करना प्रारंभ किया। बाबा का रूप धार लिया। बोलने में तो उस्ताद था ही। उसने स्वर्ग के टिकट बेचने प्रारंभ कर दिये। उसने वचन दिया सभी को कि जो भी इस टिकिट को खरीदेगा, उसे निश्चित रूप से स्वर्ग ही मिलेगा, भले उसने जिन्दगी में कितने ही पाप किये हों... न केवल पूर्व के किये गये पाप नष्ट हो जायेंगे बल्कि भविष्य में होने वाले पापों की सजा भी नहीं भुगतनी होगी। बस केवल एक टिकिट खरीदना होगा और मरते समय उसे यह टिकिट अपनी छाती पर रखना होगा।
लोगों को तो आनंद आ गया। मात्र 5000 रूपये में स्वर्ग का रिजर्वेशन! और क्या चाहिये! फिर पाप करने की छूट! लोगों में तो टिकिट खरीदने के लिये अफरातफरी मच गई। हजारों टिकट बिक गये।
बहुत बडी राशि एकत्र कर वह अपने आश्रम लौट रहा था।
उसकी कार फर्राटे भरती हुई दौड रही थी। जटाशंकर अतिप्रसन्न था कि मेरा आइडिया कितना सफल रहा। रूपये उसने बडे बडे बैगों में भरकर कार की डिक्की में रखवा दिये थे। घर जल्दी पहुँचने के भाव थे।
रास्ता थोडा टेढा था। बीच में जंगल भी था। घुमावदार रास्ते में उसकी गाडी तेजी से दौड रही थी। कि अचानक सामने एक मोड पर बीच रास्ते पर कुछ बडे बडे पत्थर पडे दिखाई दिये।
ड्राईवर को गाडी रोकनी पडी। अचानक चारों ओर से बंदूक और पिस्तौल ताने लोग कार पर हमला करने लगे। उन डाकुओं के सरदार ने बाबा जटाशंकर के पास जाकर उसकी गर्दन से पिस्तौल लगा कर कहा- बाबा! रूपयों के बैग जल्दी से मेरे हवाले कर दो। बहुत पैसा एकत्र किया है तुमने!
बाबा जटाशंकर घबराते हुए बोला- अरे! एक संत को तुम लूट रहे हो... तुम्हें खतरनाक दंड भोगना पडेगा। नरक मिलेगी नरक!
सरदार ने कहा- बाबा! उसकी तुम चिंता न करो! मैं नरक में जाने वाला नहीं हूँ! क्योंकि मैंने स्वर्ग का टिकट खरीद लिया है। आपने ही तो कहा था- भविष्य में कुछ भी पाप करो... तुम्हें स्वर्ग ही मिलेगा!
इसलिये बाबा! आप तो जल्दी से सारी राशि मेरे हवाले करो।
बाबा जटाशंकर अपनी ही बातों में फँस गया था।
स्वर्ग कोई और नहीं दे सकता। कोई टिकट नहीं होता! हम स्वयं ही अपना स्वर्ग या नरक तय करते हैं। हमारा आचरण ही हमें स्वर्ग या नरक ले जाता है।

मंगलवार, 24 जुलाई 2012

30 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

30 जटाशंकर     -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.
जटाशंकर रोज अपने घर के पिछवाडे जाकर परमात्मा से हाथ जोड कर प्रार्थना करता- हे भगवान! कुछ चमत्कार दिखाओ! मैं रोज तुम्हारी पूजा करता हूँ! नाम जपता हूँ। फिर इतना दुखी क्यों हूँ!
भगवन् मुझे कुछ नहीं चाहिये। बस! थोडे बहुत रूपये चाहिये। कभी कृपा करो भगवन्! ज्यादा नहीं बस सौ रूपये भेज दो! कहीं से भेजो! आकाश से बरसाओ चाहे... पेड पर लटकाओ! मगर भेजो जरूर! रोज रोज नहीं, तो कम से कम एक बार तो भेजो! और भगवन् ध्यान रखना! मैं अपनी आन बान का पक्का आदमी हूँ। पूरे सौ भेजना! ज्यादा मुझे नहीं चाहिये। एक भी ज्यादा हुआ तो भी मैं नहीं रखूंगा। एक भी कम हुआ, तब भी नहीं रखूंगा। जहाँ से रूपया आयेगा, उसी दिशा में वापस भेज दूंगा। मगर कृपा करो! एक बार सौ रूपये बरसा दो भगवन्!
पडौस में रहने वाला घटाशंकर रोज उसकी यह प्रार्थना सुनता था। उसने सोचा- चलो.. इसकी एक बार परीक्षा कर ही लें। देखें... यह क्या करता है।
उसने हँसी मज़ाक में एक थैली में 99 रूपये के सिक्के डाले और शाम को जब जटाशंकर आँख बंद कर प्रार्थना कर रहा था तब उसने दीवार के पास छिप कर निन्याणवें रूपये की वह थैली उसके हाथ में फेंक दी।
थैली का वजन भांप कर तुरंत जटाशंकर ने अपनी आँखें खोली। इधर उधर देखा.. कोई नजर नहीं आया। नजर कोई कहाँ से आता क्योंकि घटाशंकर तो थैली फेंक कर छिप गया था। वह छिप कर सब देख रहा था।
जटाशंकर तो थैली पाकर फूला नहीं समा रहा था। उसने सोचा- अहा! भगवान ने मेरी प्रार्थना सुन ली। मैं रोज मांगता था.. आज मेरी मांग लगता है पूरी हो गई है। भगवान के प्रति उसकी श्रद्धा बढ गई।
उसने बुदबुदाते हुए कहा- लेकिन भगवान! आपको मेरी शर्त याद है न! पूरे सौ होने चाहिये। एक भी कम नहीं! एक भी ज्यादा नहीं! कम-ज्यादा हुए तो वापस लौटा दूंगा।
जटाशंकर ने वहीं बैठकर थैली खोलकर रूपये गिनने शुरू किये! रूपये 99 निकले। उसका चेहरा उतर गया।
दीवार की ओट में छिपा घटाशंकर सोच रहा था कि अब 99 ही है... थैली फेंक वापस जल्दी से!
जटाशंकर ने दुबारा गिनना शुरू किया- शायद पहले मेरी गणना में भूल हो गई हो। लेकिन दुबारा भी 99 ही निकले। अब 99 ही थे। सौ थे ही नहीं तो एक बार गिनो चाहे पचास बार गिनो... 99 कभी भी सौ नहीं हो सकते।
जटाशंकर बहुत विचार में पड गया। उसने सोचा- भगवान की गणना में भूल कैसे हो सकती है। मैंने 100 मांगे थे..तो 99 कैसे निकले! अब क्या करूँ! यह थैली मुझे वापस फेंकनी पडेगी। यह तो ठीक नहीं हुआ। पैसा पाने के बाद वापस खोना पडेगा। वह काफी देर तक थैली हाथ में लेकर बैठा रहा... सोचता रहा...बार बार पैसे रगड रगड कर गिनता रहा!
घटाशंकर दीवार के उस पार देख देख कर मुस्कुरा भी रहा था और थैली का इंतजार भी कर रहा था। वह मन ही मन जटाशंकर को कह रहा था- भैया! कितनी ही बार गिन ले- 99 ही है। क्योंकि यह थैली कोई भगवान ने नहीं भेजी, बल्कि मैंने भेजी है। अब तूं जल्दी अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार वापस फेंक! ताकि मुझे मेरी थैली मिले और काम पे लगूं! लेकिन वह चिन्ता भी कर रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि यह प्रतिज्ञा भूल जाय और थैली रख ले... मुझे सौ रूपयों का नुकसान हो जायेगा।
वह आँखें फाड कर देख रहा था।
जटाशंकर विचार करते करते अचानक राजी होते हुए बोला- अरे.. वाह भगवान! तुम भी क्या खूब हो.. पक्के बनिये हो। भेजे तो तुमने पूरे सौ रूपये! परंतु एक रुपया थैली का काटकर 99 रूपये रोकड भेज दिये! वाह भगवान वाह!
घटाशंकर ने अपना माथा पीट लिया।
सांसारिक स्वार्थ के लिये तर्क करना हम बहुत अच्छी तरह जानते हैं! परन्तु अपनी बुद्धि का प्रयोग स्वयं के लिये अर्थात् अपनी आत्मा के लिये नहीं करते।

29 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

29 जटाशंकर          -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.
जटाशंकर की पत्नी ने अपने पति से कहा- लगता है! हमारा नौकर चोर है। हमें सावधान रहना होगा। जटाशंकर ने कहा- नौकर यदि चोर है तो उसकी छुट्टी कर देनी चाहिये।
ऐसे चोर का हमारे घर क्या काम? लगता है, इसके माता पिता ने इसे सुसंस्कार नहीं दिये।
लेकिन तुमने कैसे जाना कि वह चोर है। क्या चुराया उसने!
पत्नी ने कहा- अरे! अपने पाँच दिन पहले अपने मित्र द्वारा आयोजित भोजन समारंभ में गये थे न! वहाँ से दो चांदी के चम्मच अपन उठा कर नहीं लाये थे। वे चम्मच आज मिल नहीं रहे हैं। हो न हो! इसी ने चुराये होंगे। कैसा खराब आदमी है, चोरी करता है!
खुद ने चम्मच चोरी करके अपने झोले में डाले थे। अपनी यह चोर वृत्ति आनंद दे रही थी। कोई और चोरी करता है, दर्द होता है।
जीवन में हम इसी तरह का मुखौटा लगा कर जीते हैं। दूसरों की छोटी-सी विकृति पर बडा उपदेश देना बहुत आसान है। अपनी बडी विकृति पर दो आँसू बहाने बहुत मुश्किल है।

28 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

28 जटाशंकर       -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.

पंडित घटाशंकर और ड्राइवर जटाशंकर स्वर्गवासी हुए। स्वर्ग और नरक का निर्णय करने वाले चित्रगुप्त के पास उन दोनों की आत्माऐं एक साथ पहुँची।
चित्रगुप्त अपने चौपडे लेकर उन दोनों के अच्छे बुरे कामों की सूची देखने लगे ताकि उन्हें नरक भेजा जाय या स्वर्ग, इसका निर्णय हो सके।
लेकिन चौपडों में इन दोनों जीवों का नाम ही नहीं था। चौपडा संभवत: बदल गया था। या फिर क्लर्क ने इधर उधर रख दिया था।
आखिर चित्रगुप्त ने उन दोनों से ही पूछना प्रारंभ किया कि तुमने काम क्या किये है, इस जन्म में! अच्छे या बुरे जो भी कार्य तुम्हारे द्वारा हुए हो, हमको बता दें। उसे सुन कर हम आपकी स्वर्ग या नरक गति का निर्णय कर सकेंगे।
पंडितजी ने कहना प्रारंभ किया- मैंने जीवन भर भगवान राम और कृष्ण की कथाऐं सुनाई है। सत्संग रचा है। मेरे कारण हजारों लोगों ने राम का नाम लिया है। इसलिये मेरा निवेदन है कि मुझे स्वर्ग ही भेजा जाना चाहिये।
वाहन चालक ने अपना निवेदन करते हुए कहा- मुझे भी स्वर्ग ही मिलना चाहिये। क्योंकि मेरे कारण भी लोगों ने लाखों बार राम का नाम लिया है।
पंडितजी ने कहा- वो कैसे ? राम का नाम तो मेरे कारण लोगों ने लिया है।
वाहन चालक ने कहा- पंडितजी! आपके कारण लोगों ने राम का नाम नहीं लिया है। राम का नाम तो मेरे कारण लिया है।
पंडितजी ने अपनी आँखें तरेरी!
वाहन चालक ने कहा- आप जब राम कथा करते थे तो अधिकतर लोग नींद लेते थे तो कहाँ से राम का नाम लेते। लेकिन मैं जब शराब पीकर डेढसौ की तीव्र गति से बस चलाता था तो सारे लोग आँख बंद कर मारे डर के राम का नाम लेना शुरू कर देते थे। जब तक बस नहीं रूकती, राम का नाम लेते ही रहते थे।
इसलिये हजूर! मैंने अपने जीवन में यह सबसे बडा कार्य किया है कि हजारों, लाखों लोगों को राम का नाम याद दिला देता था। इसलिये मुझे स्वर्ग ही मिलना चाहिये।
लोगों की दृष्टि बडी अजीब होती है। अपनी गलती होने पर भी मुस्कुराकर गलती न होने का अहसास दिलाते हैं और उसे भी दूसरों के लिये उपकारी बता कर प्रपंच रचते हैं। विकृत आचरण होने पर भी स्वर्ग की याचना करना, अपने साथ प्रवंचना करना है।

27 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

27 जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.
10 वर्षीय जटाशंकर एक बगीचे में घुस आया था। बगीचे के बाहर प्रवेश निषिद्ध का बोर्ड लगा था। फिर भी वह उसे नजर अंदाज करके एक पेड के नीचे खडे होकर फल बटोर रहा था। उसने बहुत सावधानी बरती थी कि चौकीदार कहीं उधर न आ जाये।
हाँलाकि उसने पहले काफी ध्यान दिया था कि चौकीदार वहाँ है या नहीं! आता है तो कब आता है... कब जाता है।
दीवार फाँद कर वह उतर तो गया था, पर कुछ ही देर बाद चौकीदार वहाँ आ गया था। उसने जटाशंकर को जब फल एकत्र करते देखा तो चौकीदार ने अपना डंडा घुमाया और जोर से चिल्लाया- क्या कर रहे हो? फल तोडते शर्म नहीं आती!
जटाशंकर घबराते हुए बोला- नही हुजूर! मैं तो ये फल जो नीचे गिर गये थे, इन्हें वापस चिपका रहा था।
चौकीदार गुस्से में चीखा- शर्म नहीं आती झूठ बोलते हुए! अभी चल मेरे साथ! तुम्हारे पिताजी से शिकायत करता हूँ। कहाँ है तुम्हारे पिताजी!
जटाशंकर हकलाते हुए बोला- जी! पिताजी तो इसी पेड पर चढे हुए हैं। उन्होंने ही तो सारे फल तोड कर नीचे गिराये हैं।
चौकीदार अचंभित हो उठा।
जहाँ पिताजी स्वयं अनैतिक कार्य करते हो, वहाँ पुत्र को क्या कहा जा सकता है। उसे संस्कारी बनाने की बात हवा में महल बनाने जैसी होगी। संस्कारों का प्रारंभ स्वयं से होता है।

26 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.


26 जटाशंकर    -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.
जटाशंकर बगीचे में घूमने के लिये गया था। वह फूलों का बडा शौकीन था। उसे फूल तोड़ना, सूंघना और फिर पाँवों के नीचे मसल देना अच्छा लगता था।
उसकी इस आदत से सभी परेशान थे। बगीचे वाले उसे अंदर आने ही नहीं देते थे। फिर भी वह नजर बचाकर पहुँच ही जाता था।
एक शहर में उसका जाना हुआ। बगीचे में घूमते घूमते कुछ मनोहारी फूलों पर उसकी नजर पडी। वहाँ लगे बोर्ड को भी देखा। उसने पल भर सोचा, निर्णय लिया। और फूलों को न तोड़कर पूरी डालियों को ही.... मूल से ही कुछ पौधों को उखाडने लगा।
उसने एकाध पौधा तोडा ही था कि चौकीदार डंडा घुमाता हुआ पहुँचा और कहा- ऐ बच्चे! क्या कर रहे हो!
-बोर्ड पर लिखी चेतावनी तुमने नहीं पढी कि यहाँ फूल तोडना मना है?
जटाशंकर ने बडी बेफिक्री से कहा- हुजूर पढी है चेतावनी!
-फिर तुम चेतावनी का उल्लंघन क्यों कर रहे हो?
- मैंने कोई उल्लंघन नहीं किया! बोर्ड पर साफ लिखा है- फूल तोडना मना है। मैंने फूल नहीं तोडे हैं। मैं तो डालियाँ और पौधों को उखाड रहा हूँ। और पौधों को उखाडने का मना इसमें नहीं लिखा है।
चौकीदार बिचारा अपना सिर पीट कर रह गया।
हम मूल को ही तोड़ने में लगे है। सूचना फूल को भी नहीं तोड़ने की है। तर्क हम दे सकते हैं। पर सूचना का जो कथ्य है, उससे हम विश्वासघात कर बैठते हैं। जब फूल को भी नहीं तोडना है तो यह बात समझ में आनी ही चाहिये कि मूल को तो हाथ भी नहीं लगाना है। अपने जीवन के संदर्भ में मूल की बात समझे।

सोमवार, 23 जुलाई 2012

25 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

25 जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.

जटाशंकर की आदत से उसकी पत्नी बडी परेशान थी। वह उसके हर काम में हमेशा मीन मेख निकालता ही था। गलती निकाले बिना... और गलती निकाल कर दो चार कडवे शब्द बोले बिना उसकी रोटी जैसे पचती नहीं थी।
अक्सर खाने में कोई न कोई कमी निकालता ही था। उसकी पत्नी बडी मेहनत करती कि कैसे भी करके मेरे पति मेरे खाना बनाने की कला से पूर्ण संतुष्ट होकर तृप्ति का अनुभव करें। पर जटाशंकर अलग ही माटी का बना था।
उसकी पत्नी प्रशंसा के दो शब्द सुनने के लिये तरस गई थी। पर मिले हमेशा उसे कडवे शब्द ही थे।
उसकी पत्नी ने भोजन में टमाटर की चटनी परोसी थी। तो जटाशंकर तुनक कर बोला- अरे! जिस टमाटर की तुमने चटनी बनायी, यदि इसके स्थान पर तुम टमाटर की सब्जी बनाती तो ज्यादा अच्छा रहता... बडा मजा आता...! मगर तूंने चटनी बनाकर सारा काम बेकार कर दिया।
दूसरे दिन उसने टमाटर की चटनी न बनाकर सब्जी बना दी। जटाशंकर मुँह चढाता हुआ बोला- आज के टमाटर तो चटनी योग्य थे... आनंद ही कुछ अलग होता! तूंने आज सब्जी बना कर गुड गोबर कर दिया।
बेचारी पत्नी करे भी तो क्या करे! चटनी बनाती है तो सब्जी की फरमाइश और सब्जी बनाती है तो चटनी की इच्छा!
दोनों बातें कैसे हो सकती थी।
मगर एक दिन जटाशंकर की पत्नी ने ठान लिया कि देखती हूँ आज वे क्या करते हैं?
उसने टमाटर की सब्जी परोस दी। जटाशंकर अपनी आदत के मुताबिक बोला- कितना अच्छा होता... यदि टमाटर की चटनी बनी होती!
उसकी पत्नी तुरंत अंदर गई और चटनी परोसते हुए कहा- ये लो चटनी! अब तो आप प्रसन्न हैं न!
जटाशंकर पल भर के लिये तो हडबडा गया। उसे पता नहीं था कि वो दोनों ही सामग्री तैयार रखेगी।
मगर कुछ ही पलों के बाद संभलते हुए और संभल कर अपनी आदत के अनुसार बिगडते हुए कहा- अरे! तुमने सारा काम उल्टा कर दिया! जिस टमाटर की चटनी बनानी चाहिये थी, उसकी तो सब्जी बना दी और जिस टमाटर की सब्जी बनानी थी, उसकी चटनी बना दी। सारा काम तुऊंधा ही करते हो।
बेचारी पत्नी क्या बोलती? अब इसका तो कोई उपाय नहीं था।
जो व्यक्ति ठान लेते हैं कि मुझे क्रोध करना ही है, उनको दुनिया की कोई ताकत समझा नहीं सकती। उनके लिये बहाने बहुत हैं।

24 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.


24 जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.

जटाशंकर तिलमिलाता हुआ जा रहा था। आँखों के कोनों में लाली उभर आई थी। नथुने फड़क रहे थे। ललाट में दो सल स्पष्ट नजर आ रहे थे।
सामने दोस्त जटाशंकर मिला। उसने अपने दोस्त के चेहरे को देखा तो उस पर छाई विषाद की रेखाऐं नजर आई।
उसने रूक कर जटाशंकर से पूछा क्या बात है? क्या सुबह सुबह भाभी से झगड़ा हुआ है?
पाँव पटक कर जटाशंकर बोला अरे नहीं। यह दुनिया कितनी चालबाज और मक्कार हो गई है।
क्यों? क्या हुआ?
अरे। आज सुबह ही सुबह एक अपरिचित दूध वाले से मैंने साढे चार रूपये का दूध खरीदा। पाँच रूपये दिये तो उसने खोटी अठन्नी पकड़ा दी।
उसके जाने के आधे घंटे भर बाद मुझे पता चला कि वह अठन्नी तो नकली है। क्या जमाना आ गया? घोर कलियुग?
घटशंकर ने पूछा-अरे। बुरा हुआ। अच्छा बताओं तो वह अठन्नी कैसी है।
जटाशंकर ने धीरे से कहा वो... वो... तो मैंने अभी अभी सब्जी खरीदी और सब्जी वाली मांजी को पकड़ा दी। भगवान तेरा लाख लाख शुक्रिया कि खोटी अठन्नी चल गई। वह हाथ आकाश की ओर करते हुए बोला
किसी और की मक्कारी पर क्रुद्ध होने वाला व्यक्ति जब स्वयं वैसी ही हरकत करता है तो अपने आपको सर्वथा निर्दोष समझता है। यही कथनी और करनी का अंतर है।

23 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

23 जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.

जटाशंकर परीक्षा में फेल हो गया था। उसने चेहरा उदासीनता और हीन भाव से भरा था। वह यह तो अच्छी तरह जानता था कि उसके फेल होने का कारण क्या है?
उसने इस बार पढ़ाई में मन ही नहीं लगाया था। खेलने और बातों में पूरा साल बिता दिया था। फिर भी वह दोष अध्यापक को दे रहा था कि उसने मुझे पूरे नंबर नहीं दिये और फेल कर दिया।
वह दोस्तों के सामने बार बार अपने आक्रोश को अभिव्यक्त कर रहा था।
पिताजी ने जब परीक्षाफल देखा तो उसे डांटते हुए कहा पूरा साल इधर उधर घूमता रहा। पढ़ाई की नहीं तो पास कहां से होगा?
पिताजी की डांट सुनकर जटाशंकर रोने लगा। उसका रोना और रोनी सूरत देखकर पिताजी ने सोचा जो होना था, वह तो हो गया। अब यदि ज्यादा डांटा गया तो पता नहीं यह क्या क्या विचार कर लेगा? अत: इसे सांत्वना देनी चाहिये।
पिताजी ने जटाशंकर को आधे घंटे के बाद अपने पास बुला और कहा बेटा! चिंता न करो। तुम्हारे भाग्य में फेल होना ही लिखा था, इसलिये ज्यादा फ़िक्र न करो।
जटाशंकर ने कुछ सोचकर तुरंत जवाब दिया पिताजी, अच्छा हुआ जो मैंने इस वर्ष पढ़ाई नहीं की। जब मेरे भाग्य में फेल होना ही लिखा। तब पढ़ाई करता तो भी फेल ही होता।
मात्र सांत्वना के लिये कही गई भाग्य की बात का जटाशंकर ने अलग ही अर्थ निकाला था।
यह समझना जरूरी है कि पुरूषार्थ को कभी भी चुनौती नहीं दी जानी चाहिये। पुरूषार्थ का परिणाम उपलब्ध न होने की दिशा में भाग्य का आशावाद जरूरी होता है। परन्तु बिना पुरूषार्थ किये ही भाग्य के अधीन सोचना अनुचित है।

22 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

22 जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.

जटाशंकर का मन पढ़ाई में नहीं लगता था। पिता से डरकर वह पढने के लिये बैठ ज़रूर जाता था। रात में वह पढ़ाई करता था। परीक्षाएं सिर पर थी फिर भी चिंतित नहीं था।
सुबह ही सुबह उसके पिता ने कहा बेटा! कल तुमने रात पढ़ाई नहीं की। क्या जल्दी सो गये?
जटाशंकर सो तो जल्दी गया था। पर वह जानता था कि सच बोलने से डांट तो मिलेगी ही मार भी मिल सकती है। उसने असत्य का प्रयोग करते हुए कहा नहीं पिताजी। कल तो मैं अपने कमरे में रात बारह बजे तक पढ़ता रहा था। पिताजी ने कहा क्या कहा? रात बारह बजे तक पढ़ रहे थे लेकिन कल रात को लाईट 10 बजे ही चली गई थी। सुनकर जटाशंकर घबराया।
उसने तुरंत जबाब देते हुए कहा क्या बताउं पिताजी! कल मैं पढ़ाई में इतना लीन हो गया था कि लाइट कब चली गई, मुझे पता ही नहीं चला।
प्रत्युत्तर उसके भोलेपन को भी अभिव्यक्त कर रहा था और उसकी असत्यता को भी।
एक झूठ को छिपाने के लिए दूसरे झूठ का आश्रय लेना होता है पर जरूरी नहीं कि दूसरा झूठ पहले झूठ को छिपा ही देगा। सच तो यही है कि सच बहुत जल्दी प्रकट हो जाता है।

21 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

21 जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.
जटाशंकर नौटंकी में काम करता था। उसका डीलडौल इतना विशाल था कि राजा का अभिनय उसे ही करना होता था।
महाराणा प्रताप के नाटक में उसे महाराणा का रोल मिला। वह नाटक इतना प्रसिद्ध हुआ कि जगह जगह खेला जाने लगा। जटाशंकर इतनी बार वह नाटक कर गया कि वह अपना मूल परिचय भूल गया और अपने आपको महाराणा प्रताप ही समझने लगा।
वह हर समय ढाल बांधकर, सिर पर लौहटोप धारण कर, कवच धारण कर, हाथ में विशाल भाला लिये महाराणा प्रताप की वेशभूषा में रहने लगा।
एक बार वह बस में सवार था। बस में भीड़ थी। वह हाथ में भाला लिये खड़ा था। भाला बहुत लम्बा था। कंडक्टर ने कहा भाई साहब! आपके भाले से बस की चद्दर में छेद हो रहा है। मेहरबानी कर भाला थोडा टेढा कर लें। जटाशंकर ने जबाव दिया मैं महाराणा प्रताप हूं। मुझे कहने वाला कौन? मेरा भाला सीधा ही रहेगा।
कंडक्टर बिचारा बड़ा परेशान हो गया। उसने सोचा ये महाराणा प्रताप तो मेरी बस ही तोड देगा। कोई उपाय करना चाहिये।
अगला बस स्टेण्ड आते ही कंडक्टर जोर से चिल्लाया चित्तौड़ आ गया।
चित्तौड का नाम सुनते ही महाराणा प्रताप नीचे उतर गये।
आदमी नकली व्यक्तित्व के साथ जीता है। वह जो नहीं है, वही अपने आपको मान लेता है। यही भ्रमणा है और यही संसार का कारण है।

20 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

20 जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.

उम्र छोटी होने पर भी जटाशंकर बहुत तेज तर्रार था। हाजिर जवाब था। बगीचे में आम्रफलों से लदे वृक्षों को देखकर उसके मुँह में पानी भर आया। वह चुपके से बगीचे में घुसा और पेड पर चढ़ गया। आमों को तोड़ तोड़कर नीचे फेंकने लगा। दस-पन्द्रह आम तोड़ लेने के बाद भी वह लगातार और आम तोड़ रहा था।
वह एक और आम तोड़ रहा था कि बगीचे का मालिक हाथ में डंडा लेकर भीतर चला आया।
जटाशंकर को आम तोड़ते देखकर चिल्लाने लगा।
जटाशंकर पलभर में सारी स्थिति समझ गया। क्षणभर में दिमागी कसरत करता हुआ कहने लगा।
पधारिये बाबूजी !
उसे मुस्कराते देख बगीचे के मालिक का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ गया।
एक तो आम तोड़ रहा है, उपर से मुस्करा भी रहा है? तू नीचे उतर! फिर चखाता हूं मजा।
जटाशंकर कहने लगा- अरे! भलाई को तो जमाना ही नहीं रहा। कौन कहता है कि मैं आम तोड़ रहा था। अरे! ये आम नीचे पड़े थे। शायद हवा से नीचे गिर गये होंगे। मैं इधर से गुज़र रहा था, तो मैने सोचा कि आम नीचे पड़े हैं। कोई ले जायेगा तो आपका नुकसान हो जायेगा, इसलिए मैं तो इन गिरे हुए आमों को वापस चिपका रहा था। मैं कोई तोड़ नहीं रहा था। इसमें भी आप नाराज़ होते हैं तो मैं ये चला।
बगीचे का मालिक देखता ही रह गया।
बातों से उलझाना और उलझाकर घुमाना अलग बात है और सत्यता को स्वीकार करना अलग बात है। यही संसार के विस्तार और आत्म अस्तित्व के ऊर्ध्वारोहण का आधार है।

19 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

19 जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.
स्वभाव से ढीला ढाला जटाशंकर किसी भी बात पर दृढ नहीं रह पाता था। इसके कारण उसके माता पिता भी बहुत परेशान रहते थे तथा उसे बार बार समझाते थे कि थोडा दृढ़ रहना चाहिये। अपनी बात पर डटे रहना चाहिये। जो पकड़ लिया, उसे छोड़ना नहीं चाहिये।
सुन सुन कर जटाशंकर तंग आ गया। आखिर उसने तय कर लिया कि अब मैं पकडी बात तो हरगिज नहीं छोडूंगा। डटा रहूंगा। प्राण जाए पर वचन न जाइ का प्राण से पालन करूंगा।
एक बार विचारों में खोया किसी गली से गुजर रहा था। उसने आगे जाते हुए एक गधे को देखा। पता नहीं, क्या मन में आया कि उसने गधे की पुंछ पकड़ ली।
कुछ देर तो गधा सीधा चलता रहा पर जब उसने अपनी पुंछ पर मंडराता खतरा महसूस हुआ तो उसने अपना परिचय देना प्रारम्भ किया। उसने दुलत्ती झाडना शुरू कर दिया। जटाशंकर को अपनी मां के वचन याद हो आये कि पकडी चीज को छोड़ना नहीं चाहिये। उसने मन को मजबूत कर लिया कि आज कुछ भी हो जाये, पुंछ नहीं छोडूंगा।
भागते और लात मारते गधे के पीछे पुंछ पकड कर मार खाते जटाशंकर को जब लोगों ने देखा तो कहा अरे! पुंछ छोड़ क्यों नहीं देता?
जटाशंकर ने जवाब दिया कैसे छोड़े? मेरी मां ने कहा था पकड़ी वस्तु का त्याग नहीं करना चाहिये।
आग्रह जब दुराग्रह , कदाग्रह में बदल जाता है तो स्थिति ऐसी ही हो जाती है। हर क्रिया में विवेक का उपयोग तो होना ही चाहिये।

18 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

18 जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.
घटाशंकर नाव पर सवार था। नदी उफान पर थी। अकेला घटाशंकर उकता रहा था। वह नाव के नाविक मि. जटाशंकर से बातें करने लगा। नाविक को बातों में कोई रस नहीं था। दूर दूर तक कोई दूसरी नाव भी नजर नहीं आ रही थी। किनारा अभी दूर था। अभी आधा रास्ता भी पार नहीं हुआ था। नदी बहुत गहरी और तीव्र धार वाली थी। मौसम बिगड रहा था। बादल उमड घुमड रहे थे। हल्की बौछारों का प्रकोप प्रांरभ हो गया था। आसपास छाई हरियाली को देखकर घटाशंकर का मन आकाश में उड रहा था।
उसे नाविक से पूछा क्यों भाई! कितना पढे लिखे हों?
नाविक ने कहा हजूर! अनपढ़ हूं।
अरे! तुम्हें गणित विद्या आती है कुछ! यह जानकर कि नाविक अनपढ है, उसका उपहास करते हुए अंहकार से तनकर घटाशंकर ने पूछा।
नाविक उदास आँखों से झांकते हुए बोला बिल्कुल भी नहीं!
सुनकर मुस्कराते हुए घटाशंकर ने कहा फिर तो चार आना जिन्दगी तुम्हारी पानी में गई।
घटाशंकर ने फिर पूछा तुम्हें कुछ पता है कि विज्ञान की क्या नई खोज है? कुछ विज्ञान विद्या आती है तुम्हें?
नाविक रूआंसा होकर बोला बिल्कुल भी नहीं हजूर! हम तो बचपन से ही नाव चलाते हैं। नदी जानते हैं, पानी जानते हैं और आमने सामने का किनारा जानते हैं। विज्ञान ज्ञान हम क्या जाने?
घटाशंकर ने अपने चेहरे की बनावट से उसकी हँसी उडाते हुए कहा फिर तो और चार आना अर्थात् आधी जिंदगी तुम्हारी पानी में गई।
उसे अपनी विद्वता पर बडा गर्व था।
अपने प्रश्नों पर और ना में मिल रहे उत्तरों से वह बडा ही प्रसन्न था।
जटाशंकर बडा परेशान हो रहा था। उसका उपहास उडाते घटाशंकर पर वह अन्दर ही अन्दर बहुत नाराज भी हो रहा था।
घटशंकर ने कुछ ही पलों के बाद फिर प्रश्न किया कुछ ज्योतिष विद्या आती है तुम्हें! ग्रह नक्षत्रों की यह दुनिया, कुण्डली और हस्तरेखाऐं, कुछ आता है।
जटाशंकर आक्रोश युक्त परेशानी के स्वरों में कहा बाबू साहब। हम तो ठहरे गरीब और अनपढ आदमी । हमें यह सब कहां से आयेगा?
ना सुनकर घटाशंकर बोला अरे। फिर तो तुम्हारी पौन जिंदगी पानी में गई।
इतने में थोडी आंधी चलने लगी। तूफान के कारण नदी के लहरों में उछाल आ गया। नाव डगमगाने लगी। नाविक समझ गया कि पानी तेज होने वाला है। नाव हिचकोले खा रही है। अब कुछ ही देर में यह पलट कर डूब सकती है।
सोच कर उसने बाबू मि. घटाशंकर से पूछा बाबू साहब। आपको तैरना आता हैं ?
घटाशंकर घबरा कर बोला नहीं। मुझे तैरना तो नहीं आता।
मुस्कुराते हुए जटाशंकर ने कहा अब नाव डूबने वाली है। मैं तो अभी कूदता हूं। तैर कर पार हो जाउंगा। लेकिन आपको तो तैरना आता नहीं। मेरी तो पौन जिंदगी ही पानी में गई। आपकी तो पूरी जिंदगी पानी में गई।
दूसरो की अज्ञानता देखना आसान है। अपनी अज्ञानता कौन देख पाता है? और जो अपनी अज्ञानता देख लेना शुरू कर देता है, समझो कि उसने ज्ञान की दिशा में कदम आगे बढा दिया है।
दूसरो का उपहास उडाना भी आसान है। लेकिन वैसी ही परिस्थिति अपने साथ होने पर ढंग से रोया भी नहीं जायेगा।

17 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

17 जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.
विद्यालय से न केवल अपनी कक्षा में बल्कि पूरे विद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त कर खुशियों से झूमता हुआ जटाशंकर का बेटा घटाशंकर अपने घर लौट रहा था। वह बार बार अपने हाथ में कांप रहे प्रमाण पत्र को देखता और मन ही मन राजी होता। उसके दोस्त प्रसन्न थे। और उनकी बधाईयों को प्राप्त कर घटाशंकर प्रसन्न था।
वह रास्ते भर विचार करता रहा कि आज मेरे पिताजी जब इस प्रमाण पत्र को देखेंगे। मैंने भिन्न भिन्न विषयों में जो अंक प्राप्त किये हैं, उनकी संख्या देखेंगे तो वे मुझ पर कितने राजी होंगे? आज मेरी हर इच्छा पूरी होगी। पूरे घर में मेरी चर्चा होगी। पिताजी, माताजी, बडे भैया, मेरी जीजी के होठों पर आज मेरा ही नाम होगा। वह कल्पना कर रहा था कि पिताजी जब मेरी इच्छा जानना चाहेंगे तो मैं क्या मागूंगा?
आज छोटी मोटी किसी चीज से काम नहीं चलेगा! मैं तो मारूति मागूंगा! या फिर हीरो होण्डा ही ठीक रहेगा।
अपनी कल्पनाओं की काल्पनिक मस्ती में आनंदित होता हुआ जब वह घर पहुँचा तो प्यास लगने पर भी पहले उसने पानी नहीं पीया, वह खुशी खुशी पापा के पास पहुँचा। उसके पिताजी मि. जटाशंकर अपने बहीखातों में व्यस्त थे।
घटाशंकर ने पिताजी से कहा- पिताजी देखो! मैंने कितने अंक प्राप्त किये है। गणित में 100 में से 95 अंक, हिन्दी में 100 में से 90, अंग्रेजी में 100 में 92 अंक पाये हैं। आप देखो तो सही मेरा प्रमाण पत्र! आश्चर्यचकित रह जायेंगे।
पिताजी ने प्रमाण पत्र हाथ में लिया। एक पल देखने और सोचने के बाद जोर से खींचकर एक तमाचा अपने बेटे के गाल पर मारा !
घटाशंकर तो हैरान हो गया। कहाँ तो मैंने कल्पना की थी कि मुझे इनाम मिलेगा, यहाँ तो मार पड रही है। उसने पूछा- पिताजी ! आपने मुझे मारा क्यो?
जटाशंकर ने कहा- मेरा बेटा होकर कम करता है। 100 के 95 कर दिये। अरे मारवाड़ी 100 के 150 करता है। तूंने तो कम करके मेरी नाक काट दी।
यदि तूंने 100 में से 110 अंक पाये होते तो मैं राजी होता।
घटाशंकर ने अपने पिताजी का तर्क सुना तो अपना माथा पीट लिया।
संसारी आदमी सदैव सौदे की भाषा में ही बात करता है। वही समझता है। संसार को सौदे की भाषा में समझे, तब तक तो बात समझ में आती है। परन्तु जब धर्म में भी सौदे की भावना आती है, वहाँ समझना चाहिये कि उसने धर्म की महिमा को नहीं समझा है।

16 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

16 जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.
अपनी हरकतों के कारण सारा गाँव जटाशंकर को मूर्ख कहता था। उसे न बोलने का भान था, न करने का! हांलाकि वह अपने आपको बडा ही समझदार और होशियार आदमी मानता था। वह अपने मुँह मिट्ठू था। मगर समस्या यह थी कि अनजाना आदमी भी उसकी आदतों को देखकर मूर्ख कह उठता था। वह तंग आ गया। क्रोध की सीमा नहीं रही। झल्लाते हुए उसने सोचा, यह गाँव ही बेकार है। यहाँ के लोग ईर्ष्या से भरे हैं। मेरी बढती और मेरा यश इन लोगों को सुहाता नहीं है । इसलिये जब देखो तब ये लोग मेरी निन्दा करते रहते है। उसने गाँव का त्याग करने का निर्णय कर लिया। उसने सोचा- दूसरे गाँव जाउँगा। वहाँ लोगों को मेरा परिचय होगा नहीं, तो वे लोग मुझे मूर्ख नहीं कहेंगे। वहाँ मैं अपनी बुद्धि का चमत्कार दिखाउँगा और यश कमाउँगा।
उसने दूसरे ही दिन गाँव को नमस्कार कर अंधेरे अंधेरे ही चल पडा। शाम तक चलता चलता थकान का अनुभव करता हुआ दूसरे गाँव पहुँचा। गाँव के बाहर कुऐं के पास एक विशाल वटवृक्ष के तले थोड़ी देर विश्राम हेतु बैठ गया। उसे प्यास लगी थी। कुऐं के पास टंकी थी । टंकी के नीचे एक ओर नल लगे हुए थे। गाँव की महिलाएं पानी भरने आ जा रही थी।
जटाशंकर को प्यास लगी थी। वह तुरंत टंकी के पास पहुँचा। नल से एक महिला पानी भर रही थी। नल चालू था। मटका भर कर महिला ने एक ओर हटाया ही था कि जटाशंकर अपनी हथेली और अंगुलियों को मोडकर उसे दोने का आकार देते हुए बूक से पानी पीने लगा। पानी पी लेने के बाद, प्यास बुझने के बाद वह अपनी गर्दन को हिलाकर नल को मना करने लगा कि बस भाई! पानी पी लिया। अब और पानी नहीं चाहिये। परन्तु नल अपने आप तो बन्द होता नहीं। उसे बन्द करने के स्थान पर बोल कर, गर्दन हिलाकर मना करने लगा। फिर भी जब नल बन्द नहीं हुआ तो जोर जोर से चीखकर कहने लगा- बस ! अब पानी नहीं चाहिये।
यह दृश्य पानी भरने आई तीन महिलाओं ने देखा तो जोर से बोल पडी- तुम बडे मूर्ख प्रतीत हो रहे हो।
मूर्ख शब्द सुना और वह आश्चर्यचकित हो गया। उसने तुरंत महिला से पूछा- तुम्हें कैसे मालूम पडा कि मैं मूर्ख हूँ। इसी शब्द से पीछा छुड़ाने के लिये तो अपने गाँव को छोड़ा और यहाँ आया। यहाँ आते ही मेरे इस नाम का पता आपको कैसे हो गया?
महिला ने हँसते हुए कहा- गाँव छोड़ने से विशेषण नहीं बदलता । स्वभाव बदलता है तो विशेषण बदलता है। तुम्हारी हरकत मूर्खता भरी थी तो मूर्ख ही तो कहा जायेगा।
जटाशंकर कुछ समझ नहीं पाया।
व्यक्ति के स्वभाव की पहचान उसके आचरण से होती है। आचरण में यदि अविवेक है तो केवल चाहने से यश नहीं मिल सकता। हमारी चाह के साथ आचरण का तालमेल जरूरी है।