सोमवार, 23 जुलाई 2012

23 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

23 जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.

जटाशंकर परीक्षा में फेल हो गया था। उसने चेहरा उदासीनता और हीन भाव से भरा था। वह यह तो अच्छी तरह जानता था कि उसके फेल होने का कारण क्या है?
उसने इस बार पढ़ाई में मन ही नहीं लगाया था। खेलने और बातों में पूरा साल बिता दिया था। फिर भी वह दोष अध्यापक को दे रहा था कि उसने मुझे पूरे नंबर नहीं दिये और फेल कर दिया।
वह दोस्तों के सामने बार बार अपने आक्रोश को अभिव्यक्त कर रहा था।
पिताजी ने जब परीक्षाफल देखा तो उसे डांटते हुए कहा पूरा साल इधर उधर घूमता रहा। पढ़ाई की नहीं तो पास कहां से होगा?
पिताजी की डांट सुनकर जटाशंकर रोने लगा। उसका रोना और रोनी सूरत देखकर पिताजी ने सोचा जो होना था, वह तो हो गया। अब यदि ज्यादा डांटा गया तो पता नहीं यह क्या क्या विचार कर लेगा? अत: इसे सांत्वना देनी चाहिये।
पिताजी ने जटाशंकर को आधे घंटे के बाद अपने पास बुला और कहा बेटा! चिंता न करो। तुम्हारे भाग्य में फेल होना ही लिखा था, इसलिये ज्यादा फ़िक्र न करो।
जटाशंकर ने कुछ सोचकर तुरंत जवाब दिया पिताजी, अच्छा हुआ जो मैंने इस वर्ष पढ़ाई नहीं की। जब मेरे भाग्य में फेल होना ही लिखा। तब पढ़ाई करता तो भी फेल ही होता।
मात्र सांत्वना के लिये कही गई भाग्य की बात का जटाशंकर ने अलग ही अर्थ निकाला था।
यह समझना जरूरी है कि पुरूषार्थ को कभी भी चुनौती नहीं दी जानी चाहिये। पुरूषार्थ का परिणाम उपलब्ध न होने की दिशा में भाग्य का आशावाद जरूरी होता है। परन्तु बिना पुरूषार्थ किये ही भाग्य के अधीन सोचना अनुचित है।

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