सोमवार, 23 जुलाई 2012

25 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

25 जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.

जटाशंकर की आदत से उसकी पत्नी बडी परेशान थी। वह उसके हर काम में हमेशा मीन मेख निकालता ही था। गलती निकाले बिना... और गलती निकाल कर दो चार कडवे शब्द बोले बिना उसकी रोटी जैसे पचती नहीं थी।
अक्सर खाने में कोई न कोई कमी निकालता ही था। उसकी पत्नी बडी मेहनत करती कि कैसे भी करके मेरे पति मेरे खाना बनाने की कला से पूर्ण संतुष्ट होकर तृप्ति का अनुभव करें। पर जटाशंकर अलग ही माटी का बना था।
उसकी पत्नी प्रशंसा के दो शब्द सुनने के लिये तरस गई थी। पर मिले हमेशा उसे कडवे शब्द ही थे।
उसकी पत्नी ने भोजन में टमाटर की चटनी परोसी थी। तो जटाशंकर तुनक कर बोला- अरे! जिस टमाटर की तुमने चटनी बनायी, यदि इसके स्थान पर तुम टमाटर की सब्जी बनाती तो ज्यादा अच्छा रहता... बडा मजा आता...! मगर तूंने चटनी बनाकर सारा काम बेकार कर दिया।
दूसरे दिन उसने टमाटर की चटनी न बनाकर सब्जी बना दी। जटाशंकर मुँह चढाता हुआ बोला- आज के टमाटर तो चटनी योग्य थे... आनंद ही कुछ अलग होता! तूंने आज सब्जी बना कर गुड गोबर कर दिया।
बेचारी पत्नी करे भी तो क्या करे! चटनी बनाती है तो सब्जी की फरमाइश और सब्जी बनाती है तो चटनी की इच्छा!
दोनों बातें कैसे हो सकती थी।
मगर एक दिन जटाशंकर की पत्नी ने ठान लिया कि देखती हूँ आज वे क्या करते हैं?
उसने टमाटर की सब्जी परोस दी। जटाशंकर अपनी आदत के मुताबिक बोला- कितना अच्छा होता... यदि टमाटर की चटनी बनी होती!
उसकी पत्नी तुरंत अंदर गई और चटनी परोसते हुए कहा- ये लो चटनी! अब तो आप प्रसन्न हैं न!
जटाशंकर पल भर के लिये तो हडबडा गया। उसे पता नहीं था कि वो दोनों ही सामग्री तैयार रखेगी।
मगर कुछ ही पलों के बाद संभलते हुए और संभल कर अपनी आदत के अनुसार बिगडते हुए कहा- अरे! तुमने सारा काम उल्टा कर दिया! जिस टमाटर की चटनी बनानी चाहिये थी, उसकी तो सब्जी बना दी और जिस टमाटर की सब्जी बनानी थी, उसकी चटनी बना दी। सारा काम तुऊंधा ही करते हो।
बेचारी पत्नी क्या बोलती? अब इसका तो कोई उपाय नहीं था।
जो व्यक्ति ठान लेते हैं कि मुझे क्रोध करना ही है, उनको दुनिया की कोई ताकत समझा नहीं सकती। उनके लिये बहाने बहुत हैं।

24 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.


24 जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.

जटाशंकर तिलमिलाता हुआ जा रहा था। आँखों के कोनों में लाली उभर आई थी। नथुने फड़क रहे थे। ललाट में दो सल स्पष्ट नजर आ रहे थे।
सामने दोस्त जटाशंकर मिला। उसने अपने दोस्त के चेहरे को देखा तो उस पर छाई विषाद की रेखाऐं नजर आई।
उसने रूक कर जटाशंकर से पूछा क्या बात है? क्या सुबह सुबह भाभी से झगड़ा हुआ है?
पाँव पटक कर जटाशंकर बोला अरे नहीं। यह दुनिया कितनी चालबाज और मक्कार हो गई है।
क्यों? क्या हुआ?
अरे। आज सुबह ही सुबह एक अपरिचित दूध वाले से मैंने साढे चार रूपये का दूध खरीदा। पाँच रूपये दिये तो उसने खोटी अठन्नी पकड़ा दी।
उसके जाने के आधे घंटे भर बाद मुझे पता चला कि वह अठन्नी तो नकली है। क्या जमाना आ गया? घोर कलियुग?
घटशंकर ने पूछा-अरे। बुरा हुआ। अच्छा बताओं तो वह अठन्नी कैसी है।
जटाशंकर ने धीरे से कहा वो... वो... तो मैंने अभी अभी सब्जी खरीदी और सब्जी वाली मांजी को पकड़ा दी। भगवान तेरा लाख लाख शुक्रिया कि खोटी अठन्नी चल गई। वह हाथ आकाश की ओर करते हुए बोला
किसी और की मक्कारी पर क्रुद्ध होने वाला व्यक्ति जब स्वयं वैसी ही हरकत करता है तो अपने आपको सर्वथा निर्दोष समझता है। यही कथनी और करनी का अंतर है।

23 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

23 जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.

जटाशंकर परीक्षा में फेल हो गया था। उसने चेहरा उदासीनता और हीन भाव से भरा था। वह यह तो अच्छी तरह जानता था कि उसके फेल होने का कारण क्या है?
उसने इस बार पढ़ाई में मन ही नहीं लगाया था। खेलने और बातों में पूरा साल बिता दिया था। फिर भी वह दोष अध्यापक को दे रहा था कि उसने मुझे पूरे नंबर नहीं दिये और फेल कर दिया।
वह दोस्तों के सामने बार बार अपने आक्रोश को अभिव्यक्त कर रहा था।
पिताजी ने जब परीक्षाफल देखा तो उसे डांटते हुए कहा पूरा साल इधर उधर घूमता रहा। पढ़ाई की नहीं तो पास कहां से होगा?
पिताजी की डांट सुनकर जटाशंकर रोने लगा। उसका रोना और रोनी सूरत देखकर पिताजी ने सोचा जो होना था, वह तो हो गया। अब यदि ज्यादा डांटा गया तो पता नहीं यह क्या क्या विचार कर लेगा? अत: इसे सांत्वना देनी चाहिये।
पिताजी ने जटाशंकर को आधे घंटे के बाद अपने पास बुला और कहा बेटा! चिंता न करो। तुम्हारे भाग्य में फेल होना ही लिखा था, इसलिये ज्यादा फ़िक्र न करो।
जटाशंकर ने कुछ सोचकर तुरंत जवाब दिया पिताजी, अच्छा हुआ जो मैंने इस वर्ष पढ़ाई नहीं की। जब मेरे भाग्य में फेल होना ही लिखा। तब पढ़ाई करता तो भी फेल ही होता।
मात्र सांत्वना के लिये कही गई भाग्य की बात का जटाशंकर ने अलग ही अर्थ निकाला था।
यह समझना जरूरी है कि पुरूषार्थ को कभी भी चुनौती नहीं दी जानी चाहिये। पुरूषार्थ का परिणाम उपलब्ध न होने की दिशा में भाग्य का आशावाद जरूरी होता है। परन्तु बिना पुरूषार्थ किये ही भाग्य के अधीन सोचना अनुचित है।

22 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

22 जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.

जटाशंकर का मन पढ़ाई में नहीं लगता था। पिता से डरकर वह पढने के लिये बैठ ज़रूर जाता था। रात में वह पढ़ाई करता था। परीक्षाएं सिर पर थी फिर भी चिंतित नहीं था।
सुबह ही सुबह उसके पिता ने कहा बेटा! कल तुमने रात पढ़ाई नहीं की। क्या जल्दी सो गये?
जटाशंकर सो तो जल्दी गया था। पर वह जानता था कि सच बोलने से डांट तो मिलेगी ही मार भी मिल सकती है। उसने असत्य का प्रयोग करते हुए कहा नहीं पिताजी। कल तो मैं अपने कमरे में रात बारह बजे तक पढ़ता रहा था। पिताजी ने कहा क्या कहा? रात बारह बजे तक पढ़ रहे थे लेकिन कल रात को लाईट 10 बजे ही चली गई थी। सुनकर जटाशंकर घबराया।
उसने तुरंत जबाब देते हुए कहा क्या बताउं पिताजी! कल मैं पढ़ाई में इतना लीन हो गया था कि लाइट कब चली गई, मुझे पता ही नहीं चला।
प्रत्युत्तर उसके भोलेपन को भी अभिव्यक्त कर रहा था और उसकी असत्यता को भी।
एक झूठ को छिपाने के लिए दूसरे झूठ का आश्रय लेना होता है पर जरूरी नहीं कि दूसरा झूठ पहले झूठ को छिपा ही देगा। सच तो यही है कि सच बहुत जल्दी प्रकट हो जाता है।

21 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

21 जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.
जटाशंकर नौटंकी में काम करता था। उसका डीलडौल इतना विशाल था कि राजा का अभिनय उसे ही करना होता था।
महाराणा प्रताप के नाटक में उसे महाराणा का रोल मिला। वह नाटक इतना प्रसिद्ध हुआ कि जगह जगह खेला जाने लगा। जटाशंकर इतनी बार वह नाटक कर गया कि वह अपना मूल परिचय भूल गया और अपने आपको महाराणा प्रताप ही समझने लगा।
वह हर समय ढाल बांधकर, सिर पर लौहटोप धारण कर, कवच धारण कर, हाथ में विशाल भाला लिये महाराणा प्रताप की वेशभूषा में रहने लगा।
एक बार वह बस में सवार था। बस में भीड़ थी। वह हाथ में भाला लिये खड़ा था। भाला बहुत लम्बा था। कंडक्टर ने कहा भाई साहब! आपके भाले से बस की चद्दर में छेद हो रहा है। मेहरबानी कर भाला थोडा टेढा कर लें। जटाशंकर ने जबाव दिया मैं महाराणा प्रताप हूं। मुझे कहने वाला कौन? मेरा भाला सीधा ही रहेगा।
कंडक्टर बिचारा बड़ा परेशान हो गया। उसने सोचा ये महाराणा प्रताप तो मेरी बस ही तोड देगा। कोई उपाय करना चाहिये।
अगला बस स्टेण्ड आते ही कंडक्टर जोर से चिल्लाया चित्तौड़ आ गया।
चित्तौड का नाम सुनते ही महाराणा प्रताप नीचे उतर गये।
आदमी नकली व्यक्तित्व के साथ जीता है। वह जो नहीं है, वही अपने आपको मान लेता है। यही भ्रमणा है और यही संसार का कारण है।

20 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

20 जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.

उम्र छोटी होने पर भी जटाशंकर बहुत तेज तर्रार था। हाजिर जवाब था। बगीचे में आम्रफलों से लदे वृक्षों को देखकर उसके मुँह में पानी भर आया। वह चुपके से बगीचे में घुसा और पेड पर चढ़ गया। आमों को तोड़ तोड़कर नीचे फेंकने लगा। दस-पन्द्रह आम तोड़ लेने के बाद भी वह लगातार और आम तोड़ रहा था।
वह एक और आम तोड़ रहा था कि बगीचे का मालिक हाथ में डंडा लेकर भीतर चला आया।
जटाशंकर को आम तोड़ते देखकर चिल्लाने लगा।
जटाशंकर पलभर में सारी स्थिति समझ गया। क्षणभर में दिमागी कसरत करता हुआ कहने लगा।
पधारिये बाबूजी !
उसे मुस्कराते देख बगीचे के मालिक का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ गया।
एक तो आम तोड़ रहा है, उपर से मुस्करा भी रहा है? तू नीचे उतर! फिर चखाता हूं मजा।
जटाशंकर कहने लगा- अरे! भलाई को तो जमाना ही नहीं रहा। कौन कहता है कि मैं आम तोड़ रहा था। अरे! ये आम नीचे पड़े थे। शायद हवा से नीचे गिर गये होंगे। मैं इधर से गुज़र रहा था, तो मैने सोचा कि आम नीचे पड़े हैं। कोई ले जायेगा तो आपका नुकसान हो जायेगा, इसलिए मैं तो इन गिरे हुए आमों को वापस चिपका रहा था। मैं कोई तोड़ नहीं रहा था। इसमें भी आप नाराज़ होते हैं तो मैं ये चला।
बगीचे का मालिक देखता ही रह गया।
बातों से उलझाना और उलझाकर घुमाना अलग बात है और सत्यता को स्वीकार करना अलग बात है। यही संसार के विस्तार और आत्म अस्तित्व के ऊर्ध्वारोहण का आधार है।

19 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

19 जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.
स्वभाव से ढीला ढाला जटाशंकर किसी भी बात पर दृढ नहीं रह पाता था। इसके कारण उसके माता पिता भी बहुत परेशान रहते थे तथा उसे बार बार समझाते थे कि थोडा दृढ़ रहना चाहिये। अपनी बात पर डटे रहना चाहिये। जो पकड़ लिया, उसे छोड़ना नहीं चाहिये।
सुन सुन कर जटाशंकर तंग आ गया। आखिर उसने तय कर लिया कि अब मैं पकडी बात तो हरगिज नहीं छोडूंगा। डटा रहूंगा। प्राण जाए पर वचन न जाइ का प्राण से पालन करूंगा।
एक बार विचारों में खोया किसी गली से गुजर रहा था। उसने आगे जाते हुए एक गधे को देखा। पता नहीं, क्या मन में आया कि उसने गधे की पुंछ पकड़ ली।
कुछ देर तो गधा सीधा चलता रहा पर जब उसने अपनी पुंछ पर मंडराता खतरा महसूस हुआ तो उसने अपना परिचय देना प्रारम्भ किया। उसने दुलत्ती झाडना शुरू कर दिया। जटाशंकर को अपनी मां के वचन याद हो आये कि पकडी चीज को छोड़ना नहीं चाहिये। उसने मन को मजबूत कर लिया कि आज कुछ भी हो जाये, पुंछ नहीं छोडूंगा।
भागते और लात मारते गधे के पीछे पुंछ पकड कर मार खाते जटाशंकर को जब लोगों ने देखा तो कहा अरे! पुंछ छोड़ क्यों नहीं देता?
जटाशंकर ने जवाब दिया कैसे छोड़े? मेरी मां ने कहा था पकड़ी वस्तु का त्याग नहीं करना चाहिये।
आग्रह जब दुराग्रह , कदाग्रह में बदल जाता है तो स्थिति ऐसी ही हो जाती है। हर क्रिया में विवेक का उपयोग तो होना ही चाहिये।

18 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

18 जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.
घटाशंकर नाव पर सवार था। नदी उफान पर थी। अकेला घटाशंकर उकता रहा था। वह नाव के नाविक मि. जटाशंकर से बातें करने लगा। नाविक को बातों में कोई रस नहीं था। दूर दूर तक कोई दूसरी नाव भी नजर नहीं आ रही थी। किनारा अभी दूर था। अभी आधा रास्ता भी पार नहीं हुआ था। नदी बहुत गहरी और तीव्र धार वाली थी। मौसम बिगड रहा था। बादल उमड घुमड रहे थे। हल्की बौछारों का प्रकोप प्रांरभ हो गया था। आसपास छाई हरियाली को देखकर घटाशंकर का मन आकाश में उड रहा था।
उसे नाविक से पूछा क्यों भाई! कितना पढे लिखे हों?
नाविक ने कहा हजूर! अनपढ़ हूं।
अरे! तुम्हें गणित विद्या आती है कुछ! यह जानकर कि नाविक अनपढ है, उसका उपहास करते हुए अंहकार से तनकर घटाशंकर ने पूछा।
नाविक उदास आँखों से झांकते हुए बोला बिल्कुल भी नहीं!
सुनकर मुस्कराते हुए घटाशंकर ने कहा फिर तो चार आना जिन्दगी तुम्हारी पानी में गई।
घटाशंकर ने फिर पूछा तुम्हें कुछ पता है कि विज्ञान की क्या नई खोज है? कुछ विज्ञान विद्या आती है तुम्हें?
नाविक रूआंसा होकर बोला बिल्कुल भी नहीं हजूर! हम तो बचपन से ही नाव चलाते हैं। नदी जानते हैं, पानी जानते हैं और आमने सामने का किनारा जानते हैं। विज्ञान ज्ञान हम क्या जाने?
घटाशंकर ने अपने चेहरे की बनावट से उसकी हँसी उडाते हुए कहा फिर तो और चार आना अर्थात् आधी जिंदगी तुम्हारी पानी में गई।
उसे अपनी विद्वता पर बडा गर्व था।
अपने प्रश्नों पर और ना में मिल रहे उत्तरों से वह बडा ही प्रसन्न था।
जटाशंकर बडा परेशान हो रहा था। उसका उपहास उडाते घटाशंकर पर वह अन्दर ही अन्दर बहुत नाराज भी हो रहा था।
घटशंकर ने कुछ ही पलों के बाद फिर प्रश्न किया कुछ ज्योतिष विद्या आती है तुम्हें! ग्रह नक्षत्रों की यह दुनिया, कुण्डली और हस्तरेखाऐं, कुछ आता है।
जटाशंकर आक्रोश युक्त परेशानी के स्वरों में कहा बाबू साहब। हम तो ठहरे गरीब और अनपढ आदमी । हमें यह सब कहां से आयेगा?
ना सुनकर घटाशंकर बोला अरे। फिर तो तुम्हारी पौन जिंदगी पानी में गई।
इतने में थोडी आंधी चलने लगी। तूफान के कारण नदी के लहरों में उछाल आ गया। नाव डगमगाने लगी। नाविक समझ गया कि पानी तेज होने वाला है। नाव हिचकोले खा रही है। अब कुछ ही देर में यह पलट कर डूब सकती है।
सोच कर उसने बाबू मि. घटाशंकर से पूछा बाबू साहब। आपको तैरना आता हैं ?
घटाशंकर घबरा कर बोला नहीं। मुझे तैरना तो नहीं आता।
मुस्कुराते हुए जटाशंकर ने कहा अब नाव डूबने वाली है। मैं तो अभी कूदता हूं। तैर कर पार हो जाउंगा। लेकिन आपको तो तैरना आता नहीं। मेरी तो पौन जिंदगी ही पानी में गई। आपकी तो पूरी जिंदगी पानी में गई।
दूसरो की अज्ञानता देखना आसान है। अपनी अज्ञानता कौन देख पाता है? और जो अपनी अज्ञानता देख लेना शुरू कर देता है, समझो कि उसने ज्ञान की दिशा में कदम आगे बढा दिया है।
दूसरो का उपहास उडाना भी आसान है। लेकिन वैसी ही परिस्थिति अपने साथ होने पर ढंग से रोया भी नहीं जायेगा।

17 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

17 जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.
विद्यालय से न केवल अपनी कक्षा में बल्कि पूरे विद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त कर खुशियों से झूमता हुआ जटाशंकर का बेटा घटाशंकर अपने घर लौट रहा था। वह बार बार अपने हाथ में कांप रहे प्रमाण पत्र को देखता और मन ही मन राजी होता। उसके दोस्त प्रसन्न थे। और उनकी बधाईयों को प्राप्त कर घटाशंकर प्रसन्न था।
वह रास्ते भर विचार करता रहा कि आज मेरे पिताजी जब इस प्रमाण पत्र को देखेंगे। मैंने भिन्न भिन्न विषयों में जो अंक प्राप्त किये हैं, उनकी संख्या देखेंगे तो वे मुझ पर कितने राजी होंगे? आज मेरी हर इच्छा पूरी होगी। पूरे घर में मेरी चर्चा होगी। पिताजी, माताजी, बडे भैया, मेरी जीजी के होठों पर आज मेरा ही नाम होगा। वह कल्पना कर रहा था कि पिताजी जब मेरी इच्छा जानना चाहेंगे तो मैं क्या मागूंगा?
आज छोटी मोटी किसी चीज से काम नहीं चलेगा! मैं तो मारूति मागूंगा! या फिर हीरो होण्डा ही ठीक रहेगा।
अपनी कल्पनाओं की काल्पनिक मस्ती में आनंदित होता हुआ जब वह घर पहुँचा तो प्यास लगने पर भी पहले उसने पानी नहीं पीया, वह खुशी खुशी पापा के पास पहुँचा। उसके पिताजी मि. जटाशंकर अपने बहीखातों में व्यस्त थे।
घटाशंकर ने पिताजी से कहा- पिताजी देखो! मैंने कितने अंक प्राप्त किये है। गणित में 100 में से 95 अंक, हिन्दी में 100 में से 90, अंग्रेजी में 100 में 92 अंक पाये हैं। आप देखो तो सही मेरा प्रमाण पत्र! आश्चर्यचकित रह जायेंगे।
पिताजी ने प्रमाण पत्र हाथ में लिया। एक पल देखने और सोचने के बाद जोर से खींचकर एक तमाचा अपने बेटे के गाल पर मारा !
घटाशंकर तो हैरान हो गया। कहाँ तो मैंने कल्पना की थी कि मुझे इनाम मिलेगा, यहाँ तो मार पड रही है। उसने पूछा- पिताजी ! आपने मुझे मारा क्यो?
जटाशंकर ने कहा- मेरा बेटा होकर कम करता है। 100 के 95 कर दिये। अरे मारवाड़ी 100 के 150 करता है। तूंने तो कम करके मेरी नाक काट दी।
यदि तूंने 100 में से 110 अंक पाये होते तो मैं राजी होता।
घटाशंकर ने अपने पिताजी का तर्क सुना तो अपना माथा पीट लिया।
संसारी आदमी सदैव सौदे की भाषा में ही बात करता है। वही समझता है। संसार को सौदे की भाषा में समझे, तब तक तो बात समझ में आती है। परन्तु जब धर्म में भी सौदे की भावना आती है, वहाँ समझना चाहिये कि उसने धर्म की महिमा को नहीं समझा है।

16 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

16 जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.
अपनी हरकतों के कारण सारा गाँव जटाशंकर को मूर्ख कहता था। उसे न बोलने का भान था, न करने का! हांलाकि वह अपने आपको बडा ही समझदार और होशियार आदमी मानता था। वह अपने मुँह मिट्ठू था। मगर समस्या यह थी कि अनजाना आदमी भी उसकी आदतों को देखकर मूर्ख कह उठता था। वह तंग आ गया। क्रोध की सीमा नहीं रही। झल्लाते हुए उसने सोचा, यह गाँव ही बेकार है। यहाँ के लोग ईर्ष्या से भरे हैं। मेरी बढती और मेरा यश इन लोगों को सुहाता नहीं है । इसलिये जब देखो तब ये लोग मेरी निन्दा करते रहते है। उसने गाँव का त्याग करने का निर्णय कर लिया। उसने सोचा- दूसरे गाँव जाउँगा। वहाँ लोगों को मेरा परिचय होगा नहीं, तो वे लोग मुझे मूर्ख नहीं कहेंगे। वहाँ मैं अपनी बुद्धि का चमत्कार दिखाउँगा और यश कमाउँगा।
उसने दूसरे ही दिन गाँव को नमस्कार कर अंधेरे अंधेरे ही चल पडा। शाम तक चलता चलता थकान का अनुभव करता हुआ दूसरे गाँव पहुँचा। गाँव के बाहर कुऐं के पास एक विशाल वटवृक्ष के तले थोड़ी देर विश्राम हेतु बैठ गया। उसे प्यास लगी थी। कुऐं के पास टंकी थी । टंकी के नीचे एक ओर नल लगे हुए थे। गाँव की महिलाएं पानी भरने आ जा रही थी।
जटाशंकर को प्यास लगी थी। वह तुरंत टंकी के पास पहुँचा। नल से एक महिला पानी भर रही थी। नल चालू था। मटका भर कर महिला ने एक ओर हटाया ही था कि जटाशंकर अपनी हथेली और अंगुलियों को मोडकर उसे दोने का आकार देते हुए बूक से पानी पीने लगा। पानी पी लेने के बाद, प्यास बुझने के बाद वह अपनी गर्दन को हिलाकर नल को मना करने लगा कि बस भाई! पानी पी लिया। अब और पानी नहीं चाहिये। परन्तु नल अपने आप तो बन्द होता नहीं। उसे बन्द करने के स्थान पर बोल कर, गर्दन हिलाकर मना करने लगा। फिर भी जब नल बन्द नहीं हुआ तो जोर जोर से चीखकर कहने लगा- बस ! अब पानी नहीं चाहिये।
यह दृश्य पानी भरने आई तीन महिलाओं ने देखा तो जोर से बोल पडी- तुम बडे मूर्ख प्रतीत हो रहे हो।
मूर्ख शब्द सुना और वह आश्चर्यचकित हो गया। उसने तुरंत महिला से पूछा- तुम्हें कैसे मालूम पडा कि मैं मूर्ख हूँ। इसी शब्द से पीछा छुड़ाने के लिये तो अपने गाँव को छोड़ा और यहाँ आया। यहाँ आते ही मेरे इस नाम का पता आपको कैसे हो गया?
महिला ने हँसते हुए कहा- गाँव छोड़ने से विशेषण नहीं बदलता । स्वभाव बदलता है तो विशेषण बदलता है। तुम्हारी हरकत मूर्खता भरी थी तो मूर्ख ही तो कहा जायेगा।
जटाशंकर कुछ समझ नहीं पाया।
व्यक्ति के स्वभाव की पहचान उसके आचरण से होती है। आचरण में यदि अविवेक है तो केवल चाहने से यश नहीं मिल सकता। हमारी चाह के साथ आचरण का तालमेल जरूरी है।