सोमवार, 16 जुलाई 2012


7 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

घर में जटाशंकर जोर जोर से रो रहा था। चीखता भी जा रहा था। हाय मेरी नई की नई छतरी कोई ले गया? लोक इकट्ठे होने लगे। पड़ोसी पहुँच गये। दोस्तों को खबर मिली की जटाशंकर रो रहा है तो वे भी सांत्वना देने आ पहुँचे।
उनके पूछने पर जटाशंकर ने कहा-मैं ट्रेन से आ रहा था। मेरे पास नया छाता था। दो-तीन व्यक्ति रेल में मेरे पास बैठे मुझसे बतिया रहे थे। बातों ही बातों में मुझे पता ही नहीं चला और उन्होंने छाता बदल लिया। अपना पुराना फटा पुराना छाता छोड़ दिया और नया छाता ले गये। हाय मेरा नया छाता? अपनी छतरी की यादें ताज़ा हो उठी। क्या मेरा नया छाता था? एक बार भी तो काम में नहीं लिया था।
दोस्तों में सांत्वना देते हुए कहा चिंता मत करो। जो चला गया वो वापस तो नहीं आयेगा।
वातावरण कुछ हल्का होने पर एक मित्र ने विचार कर पूछा। एक बताओ, जटाशंकर।
क्या?
यह तो बता कि तूने वह छाता कब ख़रीदा था, कहां से, किस दुकान से ख़रीदा था, कितने रूपये का था?
जटाशंकर ने कहा-यह मत पूछ! यह तो पूछना मत।
उसके दृढ़ इंकार ने दोस्तों के मन में रहस्य गहरा हो उठा। वे पीछे ही पड़ गये। तुम्हें हर हाल में बताना ही होगा।
आखिर जटाशंकर हार कर कहने लगा अब तुम जिद कर रहे हो तो बताना ही पड रहा है। असल में तुम तो जानते हो कि मेरे पास पुराना, फटा छाता था। एक बार रेल से यात्रा कर रहा था। मेरे पड़ोस में एक व्यक्ति बैठा झपकी ले रहा था। स्टेशन आने पर आँख बचा कर उसके नये छाते से अपना पुराना छाता बदल लिया। यह वही नया छाता था। हाय रे मरा नया का नया छाता, कोई दुष्ट ले गया। सुनकर दोस्त मुस्कुरा कर घर की ओर चल दिये।
हमें सदैव वहीं त्रुटि त्रुटि लगती है जो दूसरे करते हैं। अपनी गलती को होशियारी समझ कर, हम स्वयं पर इतराते हैं। चिंतन को तटस्थ बनाना ही सही समझ है।
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6 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.


6 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

जटाशंकर का हाथ मशीन में आ गया था। अस्पताल में भर्ती करने के बाद डाक्टर ने कहा-तुम्हारा यह बायां हाथ काटना पडेगा। सुनकर जटाशंकर रोने लगा।
डाँक्टर ने उसे सान्त्वना देते हुए कहा भाई जटाशंकर! तुम इतने दु:खी मत बनो। अच्छा हुआ जो बायां हाथ मशीन में आया। यदि दाहिना हाथ आ जाता तो तुम बिल्कुल बेकार हो जाते। भगवान् का शुक्र है,जो तुम बच गये।
जटाशंकर ने रोते रोते कहा डाक्टर साहब! मशीन में तो मेरा दाहिना हाथ ही आया था। लेकिन मैंने दाहिने हाथ की विशिष्ट उपयोगिता का क्षण भर में विचार कर पलभर में निर्णय लेते हुए दाहिना हाथ वापस खींच लिया और बांये हाथ को अन्दर डाल दिया।
सुनकर डाक्टर उसकी मूर्खता पर मुस्कुराने लगा।
अरे! दायां हाथ निकल ही गया था तो बायां हाथ डालने की क्या जरूरत थी?
मूर्खता पर भी शेखी बघारने की आदती बढ़ती जा रही है। चिंतन नहीं कि मैं क्या कर रहा हूं? क्यों कर रहा हूं? परिणाम क्या होगा?
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5 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.


5 जटाशंकर

जटाशंकर दौड़ दौड़ कर पूरे गांव में मिठाई वितरण कर रहा था। गांव वालों ने उससे पूछा भाई क्या बात है? पुत्र हुआ है।
जटाशंकर ने कहा नहीं!
फिर किस बात के लिये मिठाई बांट रहे हो!
अरे! मत पूछो यह बात! मैं आज कितना अपने आपको प्रफुल्लित महसूस कर रहा हूं।
आखिर गांव के 25-30 व्यक्ति एक साथ इकट्ठे होकर उससे पूछने लगे भैया, कारण तो तुम्हें बताना ही होगा।
जटाशंकर ने कहा-अरे, और कुछ नहीं मेरा गधा खो गया हैं, इस उपलक्ष्य में मिठाई वितरण कर रहा हूँ। लोग हैरान होकर कहने लगे भैया, यह बात खुशी की है या शोक की! तुम परेशान होने की जगह राजी हो रहे हो।
जटाशंकर ने कहा राजी क्यों होउँ। रोज मैं गधे पर सवार होकर निकलता था। यदि मैं उस पर सवार होता तो गध्ो के साथ साथ मैं भी नहीं खो जाता। मैं अपनी सुरक्षित उपस्थिति के लिये मिठाई बाँट रहा हूँ।
लोग उसके तर्क को सुनकर मुस्कुराने लगे।
सही दिशा के अभाव में तर्क तथ्य का बोध नहीं करा पाता।
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4 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.


4 जटाशंकर     -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

जटाशंकर स्कूल में पढता था। अध्यापक ने एक दिन सभी छात्रों को अलग अलग चित्र बनाने का आदेश दिया। सबको अलग अलग विषय भी दिये।
सभी अपनी अपनी कॉपी खोलकर चित्र बनाने में जुट गये। जटाशंकर को बैठी गाय का चित्र बनाना था। पर उसे चित्र बनाते समय ध्यान रहा। बैठी गाय के स्थान पर खडी गाय का चित्र बना डाला।
जब अध्यापक ने उसकी काँपी देखी तो वह चिल्ला उठा। यह क्या किया तूने? मैंने क्या कहा था?
जटाशंकर ने जबाव दिया सर! जैसा आपने कहा था वैसा ही चित्र बनाया है। अध्यापक ने डंडा हाथ में लेकर उसे दिखाते हुए कहा मूर्ख! मैंने बैठी गाय का चित्र बनाने को कहा था और तूने खड़ी गाय का चित्र बना दिया।
जटाशंकर पल भर विचार में पड गया। उसने सोचा गलती तो हो गई। अब क्या करूँ कि मार पड़े।
वह धीरे से विनय भरे शब्दों में बोला-सर! मैंने तो बैठी गाय का ही चित्र बनाया था। पर लगता है- आपके हाथ में डंडा देखकर डर के मारे खडी हो गई है।
मास्टर समेत सभी खिलखिलाकर हँस पडे।

उचित समय पर उचित शब्दों का प्रयोग वातावरण में परिवर्तन ला देता है।

3 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.


3 जटाशंकर    उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

जटाशंकर बाजार में कागज़ के पंखे बेच रहा था। जोर जोर से बोल रहा था ‘एक रूपये का एक पंखाजिन्दगी भर चलेगाइस बात की गारन्टी। नहीं चले तो पैसा वापस!’
सुनकर लोग अचरज से भर उठे। इतना सस्ता झेलने वाला पंखाऔर जिंदगी भर चलने वालायदि नहीं चला तो नुकसान भी नहींपैसे वापस मिल जायेंगे। देखते देखते लोगों की भीड़ लग गई। लोग पंखा खरीदने के लिये उतावले बावरे हो उठे। कहीं ऐसा  हो कि पंखे खत्म हो जाय और हमारा नंबर ही नहीं लगे। सौ के करीब पंखे हाथो हाथ बिक गये।
महिलाएं उनका उपयोग करने के लिये अधीर हो उठी। कागज़ का बना पंखा। दो चार बार हिला कि फट गयाउसे धराशाही होते देख लोग क्रुद्ध हो उठे। दूसरे दिन वही पंखे बेचने वाला जब पुकार लगाता हुआ गली से गुजरा तो लोगों ने अपने टूटे पंखे दिखाकर उस पर झूठ बोलने का आरोप लगाया। तुमने हमें ठगा है। कहा था जिंदगी भर चलेंगे। अरे एक दिन भी नहीं चले। हमारा रूपया वापस करों।
जटशंकर ने धीरज से जवाब देते हुए कहा भाईमैंने आपको कोई धोखा नहीं दिया है। मैंने बिल्कुल सच कहा था कि ये पंखे जिन्दगी भर चलेंगे। आपने इस वाक्य का अर्थ नहीं समझा।
उसने रहस्योद्धाटन करते हुये कहा मैने यह नहीं कहा था कि आपकी जिंदगी तक चलेंगे। मैने यह कहा था कि जब तक इन पंखों की जिंदगी हैतब तक चलेंगे। लोगों ने उसके तर्क के आगे चुप्पी साधने में ही भलाई समझी।
शब्द और तर्क की जालसाज़ी से लोगों को निरूत्तर किया जा सकता हैपर जीवन भाव और सच्चाई से गति मान होता है।


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2 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.


 2 जटाशंकर     -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

जटाशंकर चिंता में था। उसकी पुत्री विवाह योग्य थी। पर अत्यन्त कुरूपा होने के कारण विवाह निर्धारण में समस्या रही थी। बहुत खोज कर एक अन्धे व्यक्ति के साथ उसका विवाह कर दिया गया।  प्रसन्नता के साथ जीवन व्यतीत हो रहा था।
एक बार पुत्री मायके आई हुई थी। तभी एक दिन एक वयोवृद्ध संन्यासी उनके घर आया। उसने कहामहाशय! मैने हिमालय की दुर्गम घाटियों में घूम कर दुर्लभ बूंटी पाई हैं। यदि उस बूंटी के रस की दो बूंदें किसी भी अंधे की आंख में डाल दी जाय तो उसकी आंखों में रोशनी सकती है। मैने सुना है कि आपके जामाता अंधे है, मैं उसे दृष्टिवान  बना सकता ह़ू 
सुनकर पुत्री आनन्द मग्न हो गई। मेरा पति देखने लगेगा, इस कल्पना से ही हर्षित हो उठी। कुछ देर विचार कर जटाशंकर ने उस महात्मा से कहा- महात्मन! हमें ऐसी बूंटी नहीं चाहिये। महात्मा के जाने के बाद रूष्ट स्वरों में पु़त्री ने पिता से कहा-पिताजी आपने यह क्या किया? क्या आप मेरा सुखी जीवन नहीं चाहते?
जटाशंकर ने कहा-बेटी! तुम्हारे सुख के लिये ही तो मैं नहीं चाहता कि वह देखे! क्योंकि वह ज्योंहि देखने लगेगा, तुम्हारी बाह्य कुरूपता देखेगा और सर्वप्रथम तुम्हारा त्याग करेगा। अंधे पति का कुरूप पत्नी के साथ तभी तक अनुबंध है जब तक आंखें नहीं है। आंखों में ज्योति आने के बाद यह अनुबंध टिक नहीं सकता।
संसार रूप कुरूप पत्नी के साथ तभी तक अनुबंध है, जब तक चैतन्य दृष्टि में ज्योति का अभाव है।

1 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

1 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.


जटाशंकर स्कूल में पढता था। अध्यापक के बताये काम करने में उसे कोई रूचि नहीं थी। बहाने बनाने में होशियार था। अपने तर्कों के प्रति उसे अहंकार था। वह सोचता रहता, मैं अपने तर्क से हर एक को निरूत्तर कर सकता हूँ।
एक बार वह कक्षा में पढ़ रहा था। अध्यापक ने सभी बच्चों को आदेश दिया कि घास खाती हुई गाय का चित्र बनाओ। कक्षा के सभी छात्र चित्र बनाने लगे। जटाशंकर अपनी कॉपी इधर से उधर कर रहा था। कभी अध्यापक को देखता, तो कभी चित्र बनाने में जुटे अन्य छात्रों को, पर स्वयं उसे चित्र बनाने में कोई रूचि नही थी।
आधे घंटे बाद जब सभी छात्रों ने अपनी काँपियाँ जमा करा दी। अध्यापक समझ गया था कि जटाशंकर  ने चित्र ही नहीं बनाया होगा क्योंकि वह पूरा समय इधर उधर देख रहा था।
अध्यापक ने जटाशंकर की खाली काँपी देखी तो उसे अपने पास बुलाया। जटाशंकर से गुस्से से पूछा-चित्र कहाँ बनाया हैं? काँपी तो खाली है। जटाशंकर ने बेफिक्री से जवाब दिया-महोदय, मैंने चित्र तो बनाया है, आप ध्यान से देखें। अध्यापक ने पूछा-बता, इसमें घास कहाँ है? जटाशंकर ने जबाव दिया सर, घास तो गाय खा गई।
अध्यापक ने पूछा-तो गाय कहाँ है?
जटाशंकर ने कहा-सर, घास खाने के बाद गाय वहाँ खड़ी क्यों रहेगी, वह तो चल दी। अब चूंकि गाय घास खाकर चल दी है, अत: पन्ना खाली है। जबाव सुनकर अध्यापक हैरान रह गया।

अपने कुतर्क पर व्यक्ति भले राजी हो जाय, पर वह अपना जीवन तो हार ही जाता है।

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एक मिनिट !

जटाशंकर 

जटाशंकर कोई व्यक्ति नहीं है। यह वह पात्र है जो हर व्यक्ति के भीतर छिपा बैठा है। यह हमारे अपने अन्तर का ही प्रतिबिम्ब है।
जीवन में व्यक्ति विविध घटनाओं से गुजरता हैअच्छी भीबुरी भीउन क्षणों में मानसिकता भी उसी प्रकार की हो जाती है। तब एक सच्चे सलाहकार की आवश्यकता होती हैजिससे जान सकें कि उन क्षणों में उचित उपाय क्या है?
ऐसे समय में जटाशंकर सच्चा मित्र बनता है। वह अपने आपको उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करके समझाने का प्रयास करता है कि उन अवसरों पर क्या और कैसे कार्य करना चाहिये?
यह गहरी से गहरी बात हँसी द्वारा हमें समझा देता है। यही इसकी विशिष्टता है।
सीधे सीधे किसी का नाम लेने पर द्वन्द्व खडा हो सकता है। तब जटाशंकर हमारे सामने काल्पनिक पात्र के रूप में प्रकट होता है। उसके नाम से कडवी बात भी आनन्द के साथ कही सुनी जा सकती है। हास्य कथाओं के रूप में जीवन के सत्य को उजागर करने वाली... सही दिशा देने वाली यह पुस्तक हमारे जीवन को उर्जा दें.. निश्छल और मधुर हास्य से परिपूर्ण हमारा जीवन बनें।
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