शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

48. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा

जटाशंकर स्कूल में पढता था। जाति का वह रबारी था। भेड बकरियों को चराता था। छोटे-से गाँव में वह रहता था।
अध्यापक ने गणित समझाते हुए क्लाँस में बच्चों से प्रश्न किया- बच्चों! मैं तुम्हें गणित का एक सवाल करता हूँ।
एक बाडा है। बाडे में पचास भेडें हैं। उनमें से एक भेड ने बाड कूदकर छलांग लगाली, तो बताओ बच्चों! उस बाडे में पीछे कितनी भेडें बची।
जटाशंकर ने हाथ उँचा किया। अध्यापक ने प्रेम से कहा- बताओ! कितनी भेडें बची।
जटाशंकर ने कहा- सर! एक भी नहीं!
अध्यापक ने लाल पीले होते हुए कहा- इतनी सी भी गणित नहीं आती। पचास में से एक भेड कम हुई तो पीछे उनपचास बचेगी न!
जटाशंकर ने कहा- यह आपकी गणित है। पर मैं गडरिया हूँ! भेडों को चराता हूँ! और भेडों की गणित मैं जानता हूँ! एक भेड ने छलांग लगायेगी और सारी भेडें उसके पीछे कूद पडेगी। वह न आगे देखेगी न पीछे! सर! उन्हें आपकी गणित से कोई लेना देना नहीं।
भेडों की अपनी गणित होती है। इसी कारण बिना सोचे अनुकरण की प्रवृत्ति को भेड चाल कहा जाता है। वहाँ अपनी बुद्धि का प्रयोग नहीं होता। अपनी सोच के आधार पर गुण दोष विचार कर जो निर्णय करता है, वही व्यक्ति अपने जीवन को सफल करता है।

शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

47. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा

जटाशंकर दौडता दौडता अपने घर पहुँचा। घर वाले बडी देर से चिन्ता कर रहे थे। रोजाना शाम ठीक छह बजे घर आ जाने वाला जटाशंकर आज सात बजे तक भी नहीं पहुँचा था। वे बार बार बाहर आकर गली की ओर नजर टिकाये थे।
जब जटाशंकर को घर में हाँफते हुए प्रवेश करते देखा तो सभी ने एक साथ सवाल करने शुरू कर दिये। उसकी पत्नी तो बहुत नाराज हो रही थी।
उसने पूछा- कहाँ लगाई इतनी देर!
जटाशंकर ने कहा- भाग्यवती! थोडी धीरज धार! थोडी सांस लेने दे! फिर बताता हूँ कि क्या हुआ! तुम सुनोगी तो आनंद से उछल पडोगी! मुझ पर धन्यवाद की बारिश करोगी!
कुछ देर में पूर्ण स्वस्थता का अनुभव करने के बाद जटाशंकर ने कहा- आज तो मैंने पूरे पाँच रूपये बचाये है!
रूपये बचाने की बात सुनी तो जटाशंकर की कंजूस पत्नी के चेहरे पर आनंद तैरने लगा।
उसने कहा- जल्दी बताओ! कैसे बचाये!
जटाशंकर ने कहा- आज मैं आँफिस से जब निकला तो तय कर लिया कि आज रूपये बचाने हैं। इसलिये बस में नहीं बैठा! बस के पीछे दौडता हुआ आया हूँ। यदि बस में बैठता तो पाँच रूपये का टिकट लगता! टिकट लेने के बजाय मैं उसके पीछे दौडता रहा, हाँफता रहा और इस प्रकार पाँच रूपये बचा लिये। बोलो धन्यवाद दोगी कि नहीं!
जटाशंकर की पत्नी का मुखकमल खिल उठा! परन्तु पल भर के बाद नाराज होकर बोली- अजी! आप तो मूरख के मूरख ही रहे!
अरे! जब दौडना ही तो बस के पीछे क्यों दौडे! सिर्फ पाँच रूपये बचे! यदि टेक्सी के पीछे दौडते तो पचास रूपये बच जाते! जटाशंकर ने अपना माथा पीट लिया।
पाँच बचे, इसका सुख नहीं। पचास नहीं बचे, इसका दु:ख है। जबकि पाँच रूपये बचे, यह यथार्थ है.... पचास रूपये बचने की बात कल्पना है। यथार्थ को अस्वीकार कर काल्पनिक दु:ख के लिये जो रोते हैं, वे अपनी जिन्दगी व्यर्थ खोते हैं।

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

48. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा

48. जटाशंकर  -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा
जटाशंकर स्कूल में पढता था। जाति का वह रबारी था। भेड बकरियों को चराता था। छोटे-से गाँव में वह रहता था।
अध्यापक ने गणित समझाते हुए क्लाँस में बच्चों से प्रश्न किया- बच्चों! मैं तुम्हें गणित का एक सवाल करता हूँ।
एक बाडा है। बाडे में पचास भेडें हैं। उनमें से एक भेड ने बाड कूदकर छलांग लगाली, तो बताओ बच्चों! उस बाडे में पीछे कितनी भेडें बची।
जटाशंकर ने हाथ उँचा किया। अध्यापक ने प्रेम से कहा- बताओ! कितनी भेडें बची।
जटाशंकर ने कहा- सर! एक भी नहीं!
अध्यापक ने लाल पीले होते हुए कहा- इतनी सी भी गणित नहीं आती। पचास में से एक भेड कम हुई तो पीछे उनपचास बचेगी न!
जटाशंकर ने कहा- यह आपकी गणित है। पर मैं गडरिया हूँ! भेडों को चराता हूँ! और भेडों की गणित मैं जानता हूँ! एक भेड ने छलांग लगायेगी और सारी भेडें उसके पीछे कूद पडेगी। वह न आगे देखेगी न पीछे! सर! उन्हें आपकी गणित से कोई लेना देना नहीं।
भेडों की अपनी गणित होती है। इसी कारण बिना सोचे अनुकरण की प्रवृत्ति को भेड चाल कहा जाता है। वहाँ अपनी बुद्धि का प्रयोग नहीं होता। अपनी सोच के आधार पर गुण दोष विचार कर जो निर्णय करता है, वही व्यक्ति अपने जीवन को सफल करता है।

46. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा

जटाशंकर चाय पीने के लिये घटाशंकर की होटल पर पहुँचा था। थोडा आदत से लाचार था। हर काम में कमी निकालने का उसका स्वभाव था। उसके इस स्वभाव से सभी परेशान थे।
जहाँ खाना खाने जाता, वहाँ कम नमक या कम मिर्च की शिकायत करके पैसे कम देने का प्रयास करता!
घटाशंकर ने उसे चाय का कप प्रस्तुत किया। धीरे धीरे वह चाय पीता जा रहा था। और मानस में कोई नया बहाना खोजता जा रहा था।
पूरी चाय पीने के बाद वह क्रोध्ा में फुंफकारते हुए घटाशंकर के पास पहुँचा और जोर से चीखा- चाय में चीनी इतनी कम!
घटाशंकर धीमे से बोला- एक काम करो! सामने शक्कर की दुकान है, उस ओर मुँह कर लो! शक्कर से स्वाद से तुम्हारा मुँह मीठा हो जायेगा।
जटाशंकर ने विचार किया- यह उत्तर जोरदार दिया है। शक्कर की दुकान की ओर करने से मुँह मीठा कैसे हो जायेगा!
घटाशंकर ने कहा- चलो! पैसे लाओ!
जटाशंकर ने कहा- भैया! सामने ही स्टेट बैंक ऑफ़  बीकानेर एण्ड जयपुर का कार्यालय है, उसकी ओर मुँह करलो, पैसे मिल जायेंगे।
घटाशंकर खिसिया कर रह गया। उसका तर्क उसी को भारी पड गया था।
केवल मुँह उसकी ओर से करने से काम नहीं होता! धर्म की ओर केवल मुँह करने से या बातें करने से काम नहीं होता! उसे तो आचरण में लाना होता है, तभी जीवन को ऊँचाईयाँ प्राप्त होती है।

शनिवार, 1 सितंबर 2012

50. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा

जटाशंकर परेशान था। उसकी स्मरण शक्ति बहुत कमजोर थी। इस कारण रोज उसे फटकार सुननी पडती थी। जो वस्तुऐं मंगवाई जाती, वह तो लाता नहीं था। और कई बार तो ऐसा होता था कि एक ही वस्तु को बार बार ले आता था। वह यह भूल जाता था कि यह तो मैं पहले ला चुका हूँ।
अपनी समस्या से वह बहुत परेशान था। आखिर वह थक हार कर एक बार एक सुप्रसिद्ध डॉक्टर के पास पहुँचा।
उसने निवेदन भरे स्वरों में कहा- डॉक्टर साहब! मेरी समस्या शारीरिक नहीं है। मैं बहुत जल्दी हर बात भूल जाता हूँ। याद नहीं रहता। आप कोई ऐसी दवा दीजिये ताकि मेरी स्मरण शक्ति तीव्र हो जाय।
डॉक्टर ने कहा- चिंता न करो। अभी अभी पन्द्रह दिन पहले ही अमेरिका में जोरदार शोध हुई है, एक ताकतवर दवा तैयार हुई है। वह दवा एक सप्ताह में केवल एक बार खानी होगी। उस दवा का असर एक सप्ताह तक कायम रहेगा। स्मरण शक्ति जोरदार हो जायेगी। बिल्कुल अनुभव की गई दवा है।
मेरे पास तीन दिन पहले ही वह दवा आई है।
जटाशंकर बहुत प्रसन्न हुआ। उसने कहा- डॉक्टर साहब! पैसा कितना भी लगे, चिन्ता नहीं, पर दवा कारगर होनी चाहिये।
डॉक्टर ने कहा- एक काम करो, कल इसी समय आ जाना। मैं तुम्हें दवा दे दूंगा।
जटाशंकर ने कहा- डॉक्टर साहब! कल आना भूल गया तो! इसलिये एक काम करो। पैसे मैं साथ लेकर आया हूँ। वह दवा आप आज ही मुझे दे दीजिये।
डाँक्टर ने कहा- नहीं! आज मैं तुम्हें नहीं दे सकता।
क्यों! आज क्यों नहीं!’ जटाशंकर ने तर्क किया।
डॉक्टर ने कहा- नहीं! और कोई बात नहीं है। असल में वह दवा रखकर मैं जरा भूल गया हूँ। मुझे याद नहीं है कि वह दवा कहाँ रखी है? इसलिये मैं कल तुम्हें बुला रहा हूँ। ढूंढकर कल दवा तैयार रखूंगा।
यह सुनते ही जटाशंकर ने रवाना होने में ही लाभ समझा।
जो डॉक्टर खुद अपना इलाज न कर सका, वह दूसरों का इलाज क्या करेगा? इस दुनिया में हम दूसरों का ही तो इलाज करते हैं। अपने बारे में तो सोचने का वक्त ही नहीं मिलता।

45. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा


जटाशंकर सिगरेट बहुत पीता था। उसकी पत्नी उसे बहुत समझाती थी। सिगरेट पीने से केंसर जैसी बीमारी हो जाती है! फेफडे गल जाते हैं! घर में थोडा धूआँ फैल जाय तो दीवार कितनी काली हो जाती है! फिर सिगरेट का धुआँ अपने पेट में डालने पर हमारा आन्तरिक शरीर कितना काला हो जाता होगा! धूऐं की वह जमी हुई परत मौत का कारण हो सकती है। इसलिये आपको सिगरेट बिल्कुल नहीं पीनी चाहिये।
एक दिन जटाशंकर की पत्नी अखबार पढ रही थी। उसमें सिगरेट से होने वाले नुकसानों की विस्तार से व्याख्या की गई थी। वह दौडी दौडी अपने पति के पास गई और हर्षित होती हुई कहने लगी- देखो! अखबार में क्या लिखा है? सिगरेट पीने से कितना नुकसान होता है?
जटाशंकर ने अखबार हाथ में लेते हुए कहा- कहाँ लिखा है! जरा देखूं तो सही!
उसने अखबार पढा! पत्नी सामने खडी उसके चेहरे के उतार चढाव देखती रही!
कुछ ही पलों के बाद जटाशंकर जोर से चिल्लाया- आज से बिल्कुल बंद! कल से बिल्कुल नहीं!
पत्नी अत्यन्त हर्षित होती हुई बोली- क्या कहा! कल से सिगरेट पीना बिल्कुल बंद! अरे वाह! मजा आ गया।
जटाशंकर चिल्लाते हुए बोला- अरी बेवकूफ! सिगरेट बंद का किसने कहा! मैं अखबार बंद करने का कह रहा हूँ!
सिगरेट के विरोध में ऐसा छापते हैं! ऐसे अखबार को हरगिज नहीं मंगाना है। न तुम पढोगी, न तुम मुझे बंद करने के लिये कहोगी!
अखबार बंद करने से सिगरेट की खराबी छिप नहीं जाती। विकारों को ही देशनिकाला देना होता है। यही जिन्दगी का सम्यक् परिवर्तन है।