रविवार, 29 जुलाई 2012

35 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

35 जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.

जटाशंकर की माता सामायिक कर रही थी। दरवाजे के ठीक सामने ही उसने अपना आसन लगाया था। सामायिक लेकर वह माला हाथ में लेकर बैठ गयी थी। उसकी बहू पानी लेने के लिये कुएं पर जाने की तैयारी कर रही थी। तब नल घरों में लगे नहीं थे। बहूजी ने घडा हाथ में लिया... इंडाणी भी ले ली..। पर बहुत खोजने पर भी उसे पानी छानने के लिये गरणा नहीं मिला। उसने इधर से उधर पूरा कमरा छान मारा... पर गरणा नहीं मिला।
सासुजी सामायिक में माला फेरते फेरते भी बहू को देख रही थी। वह समझ गयी थी कि बहू को गरणा नहीं मिला है। सासुजी को सामने ही गरणा नजर आ रहा था। पर बहू को नहीं दीख रहा था। सासुजी ने माला फेरते फेरते हूं हूं करते हुए कई बार इशारा किया। पर बहूजी समझ नहीं पाई।
इशारा करते सासुजी को बहूजी ने देखा तो आखिर परेशान होकर कह ही दिया कि मांजी! अब आप बताही दो कि गरणा कहाँ रखा है? मुझे देर हो जायेगी पानी लाने में... फिर दिन भर के हर काम में देर होती ही रहेगी।
सासुजी साधु संतों के प्रवचनों में जाने वाली थी। वह जानती थी कि सामायिक में सांसारिक वार्तालाप किया नहीं जाता। धार्मिक शब्दों का ही उच्चारण किया जा सकता है। अब गरणा मेरे सामने पडा है, पर बहू को बताउँ कैसे?
आखिर उसने युक्ति काम में ली। उसने एक पद्य की रचना की। वह जोर से बोलने लगी!
अरिहंत देव को शरणो।
खूंटी पर पड्यो है गरणो!
अरिहंत परमत्मा का नाम लेकर अपने धार्मिक मन को संतोष भी दे दिया और गरणे का स्थान बताकर बहू का समाधान भी कर लिया।
यह गली निकालने वाली बात है। यह धार्मिक प्रवृत्ति नहीं कही जा सकती। हम गलियाँ निकालने में माहिर है पर इससे मूल सिद्धांतों के साथ धोखा कर बैठते हैं।

34 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

34 जटाशंकर   -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.
जटाशंकर ठग था। ठगी करके अपना गुजारा चलाता था। वह घी बेचने का काम करता था। एक दिन उसे रास्ते घटाशंकर मिल गया। जटाशंकर ने सोचा- मैं इसे पटा लूं और घी बेच दूं। उसे पता नहीं था कि घटाशंकर भी पहुँचा हुआ ठग है। वह भी यह विचार कर रहा था कि जटाशंकर को पटा कर इसे सोने की अंगूठी बेच दूं।
जटाशंकर ने घटाशंकर से और घटाशंकर ने जटाशंकर से परिचय साधा। दोनों आपस में बात करने लगे। घटाशंकर ने पूछा- भैया! क्या हाल चाल है?
जटाशंकर ने जवाब दिया- बहुत मुश्किल काम हो रहा है। जब से डालडा लोग खाने लगे हैं, असली घी को तो कोई पूछता ही नहीं है। मैं सुबह से घूम रहा हूँ गाय का घी लेकर... पर कोई खरीददार नहीं मिला। देखो, कितना सुगंधदार, शानदार, दानेदार घी है! यों कहकर थोडा-सा घी घटाशंकर की अंगुली पर धरा।
घटाशंकर बोला- मेरा भी यही हाल है। मैं सोने के आभूषण बेचता हूँ! पर सत्यानाश हो इन नकली आभूषणों का! जब से नकली आभूषण बाजार में आये हैं, लोग वही पहनने लगे हैं। असली सोने के आभूषणों को कोई हाथ भी नहीं लगाता। देखो, कितना सुन्दर यह आभूषण है। यह कहकर उसे सोने की अंगूठी दिखाई।
दोनों ने एक दूसरे को पटाना प्रारंभ किया। घटाशंकर ने जटाशंकर से घी खरीद लिया। और जटाशंकर ने घटाशंकर से अंगूठी!
दोनों अपने मन में बडे राजी हुए। सोचते थे अपने मन में कि मैंने उसे ठगा।
घर जाने के बाद जब घटाशंकर ने घी का डिब्बा दूसरे डिब्बे में खाली किया तो पाया उपर दो अंगुल ही घी था, उसके नीचे तो पानी भरा था।
जटाशंकर ने सोने के अंगूठी को जब किसी सुनार को दिखाई तो पता लगा कि अंगूठी तो पीतल की है, उपर सोने का मात्र धूआं है।
दोनों चिल्लाने लगे कि मुझे ठग लिया है।
यह दुनिया ऐसी ही है। हम सोचते हैं कि मैंने ठगा, पर हकीकत है कि हम ठगे गये। यहाँ हर व्यक्ति एक दूसरे को ठग रहा है। और राजी हो रहा है। सत्य की आँख खुले तो जिंदगी बदल जाये।