मंगलवार, 28 अगस्त 2012

44 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

जटाशंकर के घर कुछ काम था। एक बडा गड्ढा खुदवाना था। उसने मजदूर रख लिया और काम सौंप कर अपने काम पर चला गया। उसने सोचा था कि जब मैं शाम घर पर जाउँगा, तब तक काम पूरा हो ही जायेगा। शाम जब घर पर लौटा तो उसने देखा कि मजदूर ने गड्ढा तो बिल्कुल ही नहीं खोदा है।
उसने डाँटते हुए कहा- पूरा दिन बेकार कर दिया... तुमने कोई काम ही नहीं किया! क्या करते रहे दिन भर!
मजदूर ने जवाब दिया- हुजूर! गड्ढा खोदने का काम मैं शुरू करने ही वाला था कि अचानक एक प्रश्न दिमाग में उपस्थित हो गया। आपने गड्ढा खोदने का तो आदेश दे दिया पर जाते जाते यह तो बताया ही नहीं कि गड्ढे में से निकलने वाली मिट्टी कहाँ डालनी है? इसलिये मैं काम शुरू नहीं कर पाया और आपका इन्तजार करता रहा।
जटाशंकर ने कहा- इसमें सोचने की क्या बात थी? अरे इसके पास में एक और गड्ढा खोद कर उसमें मिट्टी डाल देता!
उधर से गुजरने वाले लोग जटाशंकर की इस बात पर मुस्कुरा उठे।
हमारा जीवन भी ऐसा ही है। एक गड्ढे को खोदने के लिये दूसरा गड्ढा खोदते हैं फिर उसकी मिट्टी डालने के लिये तीसरा गड्ढा खोदते हैं। यह काम कभी समाप्त ही नहीं होता।
संसार की हमारी क्रियाऐं ऐसी ही है। हर जीवन नये जीवन का कारण बनता है। साध्ाक तो वह है जो जीवन अर्थात् जन्म मरण की इतिश्री करता है।

शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

43. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

जटाशंकर नौकरी की तलाश में घूम रहा था। वह समझ रहा था कि यदि मुझे शीघ्र ही नौकरी नहीं मिली तो घर का चूल्हा जलना बंद हो जायेगा।
चलते चलते वह एक सर्कस वाले के पास पहुँचा। सर्कस के मैनेजर ने कहा- मैं तुम्हें एक काम दे सकता हूँ। रूपये तुम्हें पूरे मिलेंगे।
जटाशंकर ने कहा- हुजूर! आप जो भी काम सौंपेंगे, मैं करने के लिये तैयार हूँ। बताइये मुझे क्या काम करना होगा?
मैनेजर ने कहा- एक शेर की हमारे पास कमी हो गई है। तुम्हें शेर की खाल पहन कर शेर का अभिनय करना है। बस! थोड़ी देर का काम है। थोडा चीखना है! दहाड लगानी है! आधे घंटे का काम है। पिंजरे में घूमना है। दर्शकों का मनोरंजन हो जायेगा। और तुम्हें पैसे मिल जायेंगे। महीने भर तो यह काम करो, फिर बाद में देखेंगे।
जटाशंकर थोड़ा हैरान हुआ कि शेर का काम मुझे करना पडेगा! पर सोचा कि पैसे तो मिल ही रहे हैं न! फिर क्या चिंता!
दूसरे दिन से समय पर उसने पिंजरे में बैठकर शेर की खाल पहन ली। दर्शकों का जोरदार मनोरंजन किया। नकली शेर तो ज्यादा ही दहाडता है। उसने जो दहाड लगाई, जो उछला, कूदा, लोग आनंदित हो गये।
मैनेजर ने प्रसन्न होकर उसे पुरस्कृत भी किया।
यह क्रम लगातार चलता ही रहा।
एक दिन वह दर्शकों के बीच जालियों से बने पिंजरे में दहाड लगा रहा था कि तभी उस पिंजरे में दूसरे शेर ने प्रवेश किया। असल में उस दिन दो शेरों के प्रदर्शन का कार्यक्रम था।
दूसरा शेर दांत निकाल कर, आँखें तरेर कर जोरदार दहाड रहा था।
दूसरे असली शेर को देखकर नकली शेर मिस्टर जटाशंकर डर गया। उसने विचार किया- लोग मुझे असली शेर समझ सकते हैं पर यह असली शेर तो मुझे सूंघते ही समझ जायेगा कि मैं शेर नहीं बल्कि आदमी हूँ।
उसकी तो मारे डर के घिग्घी बंध गई। उसने तो तुरंत आव देखा न ताव, छलांग लगाई और शेर की खाल उतार कर चारों ओर लगी जालियों पर तेजी से चढ़ गया। लोग चक्कर में पडे कि यह शेर आदमी कैसे हो गया!
जटाशंकर तो जाली पर चढकर जोर जोर से ‘बचाओ बचाओ चीखने लगा।
इतने में दूसरे शेर ने शेर की खाल थोडी सी उतारते हुए कहा- भैया! डर मत! मैं शेर नहीं हूँ।
लोग यह तमाशा देखकर दोहरे हो गये कि यहाँ तो दोनों ही शेर नकली है।
असली असली ही होता है... और नकली नकली! नकली ज्यादा टिकाउ नहीं हो सकता। उसकी तो पोल खुल ही जाती है। हमें अपना जीवन असलियत के आधार पर जीना है। नकली जीवन मात्र कर्मबंधन का ही कारण है।

शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

42. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

जटाशंकर परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गया था। अपना कार्ड लेकर मुँह लटका कर रोता हुआ जब घर पहुँचा तो पिताजी ने रोने का कारण पूछा- हाथ में रखा प्रगति पत्र आगे करते हुए कहा- मैं फेल हो गया हूँ। इसलिये रो रहा हूँ।
पिताजी को भी क्रोध तो बहुत आया। साल भर गँवा दिया। यदि मेहनत करता तो निश्चित ही पास हो जाता। इधर उधर घूमता रहा। पढाई की नहीं, तो फेल तो होओगे।
पर सोचा- मेरा लडका वैसे ही उदास है। रो रहा है। यदि मैंने भी क्रोध में इसे डाँटना प्रारंभ कर दिया तो पता नहीं यह क्या कर बैठेगा? कहीं उल्टी सीधी हरकत कर दी तो मैं अपने बेटे से हाथ खो बैठूंगा।
इसलिये सांत्वना देते हुए पिताजी ने कहा- बेटा जटाशंकर! रो मत! तुम्हारे भाग्य में फेल होना ही लिखा था। इसलिये धीरज धर।
सुनते ही जटाशंकर ने अपना रोना बंद कर दिया और मुस्कुराते हुए कहा- पिताजी! मैं इस बात पर बहुत प्रसन्न हूँ कि मेरे भाग्य में फेल होना ही लिखा था। अच्छा हुआ जो मैंने मेहनत पूर्वक पढाई नहीं की। यदि करता तो भी फेल हो जाता और इस प्रकार मेरी सारी मेहनत बेकार हो जाती, मिट्टी में मिल जाती।
मेहनत न करने का दोष भाग्य पर नहीं ढाला जा सकता। भाग्य तो पुरूषार्थ का ही परिणाम है। मेहनत से जी चुराने वाला सदा अनुत्तीर्ण होता है। और दोष अपने आलस्य को नहीं, बल्कि भाग्य को देकर राजी होता है।

शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

41. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.


जटाशंकर परमात्मा के मंदिर में पहुँचा था। चावल के स्वस्तिक की रचना करने के बाद उसने अपनी जेब में से एक अठन्नी निकाली और अच्छी तरह निरख कर भंडार में डाल दी। एक लडका उसे देख रहा था।
उसने जटाशंकर से कहा- सेठजी! यह तो खोटी अठन्नी है। भगवान के पास भी ऐसा छल कपट करते हो! मंदिर में खोटी अठन्नी चढाते हो!
जटाशंकर ने कहा- अरे! तुम्हें पता नहीं है। चिलातीपुत्र, इलायचीकुमार, दृढ़प्रहारी जैसे खोटे लोग भी परमात्मा की शरण को प्राप्त कर सच्चे हो गये थे... तिर गये थे.... तो क्या मेरी खोटी अठन्नी परमात्मा की शरण को पाकर सच्ची नहीं बन जायेगी!
वह लडका तो देखता ही रह गया।
अपने तर्क के आधार पर परमात्मा के मंदिर को भी अपने छल कपट का हिस्सा बनाते हैं। और अपनी बुद्धि पर इतराते हैं। यह स्वस्थ मानसिकता नहीं है।

बुधवार, 8 अगस्त 2012

40. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.


जटाशंकर को बैंक में पहरेदारी की नौकरी मिली थी। होशियार था तो कम, पर अपने आप को समझता ज्यादा था।
शाम के समय में बैंक मैनेजर ने अपने सामने ताला लगवाया। उस पर सील लगवाई और चौकीदार जटाशंकर से कहा- ध्यान रखना! सील कोई तोड न दें। पूरी रात चौकीदारी करना।
जटाशंकर ने अपनी मूंछों पर अकडाई के साथ हाथ फेरते हुए कहा- आप जरा भी चिंता न करें। इस सील का बाल भी बांका नहीं होने दूंगा।
दूसरे दिन सुबह बैंक मैनेजर ने आकर देखा तो पता लगा कि रात लुटेरों ने बैंक को लूंट लिया है। क्रोध में उसने जटाशंकर को बुलाया और कहा- क्या करते रहे तुम रात भर! यहाँ पूरी बैंक ही लुट गई।
जटाशंकर ने कहा- हजूर! आपने मुझे सील की सुरक्षा का कार्य सौंपा था। मैंने उसे पूरी तरह सुरक्षित रखा है। आप देख लें।
पर चोर तो दीवार में सेंध मार कर भीतर घुसे हैं।
- हुजूर! यह तो मैं देख रहा था। दीवार को तोडते भी देखा, अंदर जाते भी देखा, सामान लूटते भी देखा, सामान ले जाते भी देखा।
- तो फिर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे, उन्हें रोकना नहीं था!
- हुजूर! आपने मुझे सील की सुरक्षा की जिम्मेवारी सौंपी थी। मैं इधर उधर कैसे जा सकता था!
मैनेजर ने अपना माथा पीट लिया।

रविवार, 5 अगस्त 2012

39. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.


जटाशंकर परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गया था। अपना कार्ड लेकर मुँह लटका कर रोता हुआ जब घर पहुँचा तो पिताजी ने रोने का कारण पूछा- हाथ में रखा प्रगति पत्र आगे करते हुए कहा- मैं फेल हो गया हूँ। इसलिये रो रहा हूँ।
पिताजी को भी क्रोध तो बहुत आया। साल भर गँवा दिया। यदि मेहनत करता तो निश्चित ही पास हो जाता। इधर उधर घूमता रहा। पढाई की नहीं, तो फेल तो होओगे।
पर सोचा- मेरा लडका वैसे ही उदास है। रो रहा है। यदि मैंने भी क्रोध में इसे डाँटना प्रारंभ कर दिया तो पता नहीं यह क्या कर बैठेगा? कहीं उल्टी सीधी हरकत कर दी तो मैं अपने बेटे से हाथ खो बैठूंगा।
इसलिये सांत्वना देते हुए पिताजी ने कहा- बेटा जटाशंकर! रो मत! तुम्हारे भाग्य में फेल होना ही लिखा था। इसलिये धीरज धर।
सुनते ही जटाशंकर ने अपना रोना बंद कर दिया और मुस्कुराते हुए कहा- पिताजी! मैं इस बात पर बहुत प्रसन्न हूँ कि मेरे भाग्य में फेल होना ही लिखा था। अच्छा हुआ जो मैंने मेहनत पूर्वक पढाई नहीं की। यदि करता तो भी फेल हो जाता और इस प्रकार मेरी सारी मेहनत बेकार हो जाती, मिट्टी में मिल जाती।
मेहनत न करने का दोष भाग्य पर नहीं ढाला जा सकता। भाग्य तो पुरूषार्थ का ही परिणाम है। मेहनत से जी चुराने वाला सदा अनुत्तीर्ण होता है। और दोष अपने आलस्य को नहीं, बल्कि भाग्य को देकर राजी होता है।

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

38. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.


जटाशंकर बस में यात्रा कर रहा था। वह तेजी से कभी बस में आगे की ओर जाता, कभी पीछे की ओर! बस आधी खाली होने पर भी वह बैठ नहीं रहा था। कुछ यात्रियों ने कहा भी कि भैया! बैठ जाओ! सीट खाली पडी है। जहाँ मरजी, बैठ जाओ! पर वह सुना अनसुना कर गया।
आखिर कुछ लोगों से रहा नहीं गया। उन्होंने उसे पकड कर पूछना शुरू किया- तुम चल क्यों रहे हो? आखिर एक स्थान पर बैठ क्यों नहीं जाते?
उसने जवाब दिया! मुझे बहुत जल्दी है। मुझे जल्दी से जल्दी अपनी ससुराल पहुँचना है। वहाँ मेरी सासुजी बीमार है। मेरे पास समय नहीं है। इसलिये तेजी से चल रहा हूँ।
भैया मेरे! बस जब पहुँचेगी तब पहुँचेगी। बस में तुम्हारे चलने का क्या अर्थ है? बस में तुम चल तो कितना ही सकते हो...चलने के कारण थक भी सकते हो... पर पहुँच कहीं नहीं सकते।
जब भी देखोगे, अपने आप को बस में ही पाओगे... वहीं के वहीं पाओगे।
वह चलना व्यर्थ है, जो कहीं पहुँचने का कारण नहीं बनता। हमारी यात्रा भी ऐसी होनी चाहिये जिसका कोई परिणाम होता है। वही यात्रा सफल है।

37. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

मिस्टर घटाशंकर के गधे को बुखार आ गया था। बुखार बहुत तेज था। गधा जैसे जल रहा था। न कोई काम कर पा रहा था जटाशंकर को अपने गधे से स्वाभाविक रूप से बहुत प्रेम था। वह परेशान हो उठा।
उसने डोक्टर से इलाज करवाने का सोचा। मुश्किल यह थी कि उस गाँव में पशुओं का कोई डोक्टर न था। अत: सामान्य डोक्टर को ही बुलवाया गया।
डोक्टर जटाशंकर ने आते ही गधे का मुआयना किया। उसने देखा- बुखार बहुत तेज है। उसे पशुओं के इलाज का कोई अनुभव नहीं था।
उसने अपना अनुमान लगाते हुए सोचा- सामान्यत: किसी व्यक्ति को बुखार आता है तो उसे एक मेटासिन या क्रोसिन दी जाती है। चूंकि यह गधा है। इसके शरीर का प्रमाण आदि का विचार करते हुए उसने 10 गोलियाँ मेटासिन की इसे देने का तय किया।
घटाशंकर भागा भागा मेटासिन की 10 गोलियाँ ले आया। अब समस्या यह थी कि इसे गधे को खिलाये कैसे?
घटाशंकर ने घास में गोलियाँ डाल कर गधे को खिलानी चाही। पर गधा बहुत होशियार था। उसने अपने मालिक को जब घास में कुछ सफेद सफेद गोलियाँ डालते देखा वह सशंकित हो गया। उसने सोचा- कुछ गडबड है। मैं इस घास को हरगिज नहीं खाउँगा, पता नहीं मेरे मालिक ने इसमें क्या डाल दिया है। जरूर यह सारी गडबड इस दूसरे आदमी की है।
घटाशंकर ने बहुत प्रयास किया कि वह गोलियों वाली घास खाले। पर गधा टस से मस न हुआ
आखिर हारकर घटाशंकर ने डोक्टर जटाशंकर से पूछा- अब क्या किया जाये? वह रूआँसा होकर कहने लगा- डोक्टर साहब! इसे गोलियाँ आपको कैसे भी करके खिलानी है? यह काम आप ही कर सकते हैं। मैं आपको दुगुनी फीस दूंगा।
दुगुनी फीस प्राप्त होने के निर्णय से प्रसन्न होते हुए जटाशंकर ने कुछ सोच कर योजना बनाई। उसने कहा- तुम एक काम करो। एक गोल भूंगली ले आओ। भूंगली के इस सिरे पर 10 गोलियाँ रखो। फिर भूंगली के सामने वाले सिरे को गधे के गले में अन्दर तक डाल दो। फिर भूंगली के इधर वाले सिरे से मैं जोर से फूंक मारता हूँ। फिर देखो, सारी गोलियाँ सीधी गधे के पेट में चली जायेगी।
अपनी योजना पर राजी होते हुए उसने इसे क्रियान्वित करना प्रारंभ किया। घटाशंकर दौडकर चूल्हा फूंकने वाली भूंगली ले आया।
डोक्टर जटाशंकर ने भूंगली गधे के मुँह में डालने के बाद इधर वाले सिरे पर गोलियाँ रखनी प्रारंभ की।
गधा अचरज में पड गया। यह आदमी मेरे साथ क्या कर रहा है? वह चौकन्ना हो उठा।
डोक्टर ने गोलियाँ रखकर भूंगली का इधर वाला सिरा अपने मुँह में डाल दिया और जोर से फूंक मारने की तैयारी करने लगा।
वह फूंक मारे, उससे पहले ही भडक कर गधे से जोर से एक फूंक मार दी। गधे की फूंक से सारी गोलियाँ डोक्टर के पेट में पहुँच गई।
डोक्टर गधे को तो न खिला सका। सारी गोलियाँ उसी का आहार बन गई।
योजना बनाना बहुत आसान है। पर बहुत बार बाजी पलट कर उसी को लपेट में ले लेती है।

बुधवार, 1 अगस्त 2012

36. जटाशंकर         -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.

घटाशंकर की विद्वत्ता दूर दूर तक प्रसिद्ध थी। पर लोगों के मन में इस बात का रंज था कि पंडितजी घोर अहंकारी है। किसी की भी बात को काटने में ही वे अपनी विद्वत्ता को सार्थक मानते थे।

एक बार जटाशंकर ने उन्हें भोजन करने का निमंत्रण दिया। पंडित प्रवर ज्योंहि भोजन करने के लिये बैठे, जटाशंकर ने उन्हें याद दिलाते हुए कहा- आप हाथ धोना भूल गये हैं, चलिये पहले हाथ धो लीजिये।

पंडितजी को भी अपनी भूल तो समझ में आ गई कि भोजन की थाली पर आने से पूर्व ही हाथ धो लेने चाहिये थे। पर अब क्या करें? कोई और मुझे मेरी गलती बताये, यह मुझे मंजूर नहीं है।

उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया- अरे यजमान! क्या तुम पानी से हाथ धोने की बात करते हो। हमारे अन्दर तो ज्ञानगंगा लगातार बह रही है। इसलिये उस जल से हम सदा स्वच्छ ही रहते हैं। क्या इस बाहर के पानी से हाथ धोना!

जटाशंकर इस उत्तर से अन्दर ही अन्दर बहुत कुपित हुआ। उसने इस उत्तर का प्रत्युत्तर देने का तय कर लिया।

भोजन में भरपूर दाल बाटी खा लेने के बाद पंडित प्रवर घटाशंकरजी को गहरी निद्रा आने लगी। वे खूंटी तानकर सो गये। सोने से पहले यजमान जटाशंकर को कहा- भैया! पानी का लोटा भर कर सिरहाने के पास रख देना।

जटाशंकर के दिमाग में पंडितजी का उत्तर तैर रहा था।

उसने कमरे में पंडितजी को सुलाकर दरवाजा बाहर से बंद कर दिया और पास वाले कमरे में जाकर सो गया।

एक घंटे के विश्राम के बाद दो बजे पंडितजी की आँख खुली। उन्हें जोरदार प्यास लगी थी। पानी पीने के लिये लोटा हाथ में लिया तो  देखा  कि लोटा तो एकदम खाली था। उसे यजमान के प्रति बडा क्रोध आया। मैंने कहा था कि लोटा भर कर रखना। पर इसने तो रखा ही नहीं।

उन्होंने दरवाजा खटखटाना शुरू किया। जटाशंकर सुन रहा था, पर दरवाजा नहीं खोला। आखिर पंडितजी जोर से चिल्लाने लगे। प्यास खतरनाक रूप से गहरी हो गई।

आखिर चार बजे जटाशंकर ने दरवाजा खोला। और कृत्रिम क्षमायाचना करते हुए कहने लगा- माफ करना पंडितजी, जरा आँख लग गई थी। फरमाईये कोई काम तो नहीं!

पंडितजी ने आँखें तरेरते हुए कहा- काम पूछता है। प्यासा मार दिया। एक बूंद पानी लोटे में नहीं था।

जटाशंकर ने कहा- अरे पंडितजी! आप क्या पानी पानी करते हो! ज्ञानगंगा आपके भीतर ही बह रही है। प्यास लगी थी तो एक लोटा वहीं से भरकर पी लेते। क्या बाहर का पानी पीते हो! अंदर के ज्ञानघट का पानी पीजिये।

अपने नहले पर इस दहले को सुनते ही पंडितजी को बात समझ में आ गई। उन्होंने क्षमायाचना करने में सार समझा।

जीवन में व्यवहार जरूरी है। दार्शनिकता का संबंध चिंतन से है। जबकि जीवन तो व्यवहार से चलता है।