गुरुवार, 2 अगस्त 2012

38. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.


जटाशंकर बस में यात्रा कर रहा था। वह तेजी से कभी बस में आगे की ओर जाता, कभी पीछे की ओर! बस आधी खाली होने पर भी वह बैठ नहीं रहा था। कुछ यात्रियों ने कहा भी कि भैया! बैठ जाओ! सीट खाली पडी है। जहाँ मरजी, बैठ जाओ! पर वह सुना अनसुना कर गया।
आखिर कुछ लोगों से रहा नहीं गया। उन्होंने उसे पकड कर पूछना शुरू किया- तुम चल क्यों रहे हो? आखिर एक स्थान पर बैठ क्यों नहीं जाते?
उसने जवाब दिया! मुझे बहुत जल्दी है। मुझे जल्दी से जल्दी अपनी ससुराल पहुँचना है। वहाँ मेरी सासुजी बीमार है। मेरे पास समय नहीं है। इसलिये तेजी से चल रहा हूँ।
भैया मेरे! बस जब पहुँचेगी तब पहुँचेगी। बस में तुम्हारे चलने का क्या अर्थ है? बस में तुम चल तो कितना ही सकते हो...चलने के कारण थक भी सकते हो... पर पहुँच कहीं नहीं सकते।
जब भी देखोगे, अपने आप को बस में ही पाओगे... वहीं के वहीं पाओगे।
वह चलना व्यर्थ है, जो कहीं पहुँचने का कारण नहीं बनता। हमारी यात्रा भी ऐसी होनी चाहिये जिसका कोई परिणाम होता है। वही यात्रा सफल है।

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