शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

47. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा

जटाशंकर दौडता दौडता अपने घर पहुँचा। घर वाले बडी देर से चिन्ता कर रहे थे। रोजाना शाम ठीक छह बजे घर आ जाने वाला जटाशंकर आज सात बजे तक भी नहीं पहुँचा था। वे बार बार बाहर आकर गली की ओर नजर टिकाये थे।
जब जटाशंकर को घर में हाँफते हुए प्रवेश करते देखा तो सभी ने एक साथ सवाल करने शुरू कर दिये। उसकी पत्नी तो बहुत नाराज हो रही थी।
उसने पूछा- कहाँ लगाई इतनी देर!
जटाशंकर ने कहा- भाग्यवती! थोडी धीरज धार! थोडी सांस लेने दे! फिर बताता हूँ कि क्या हुआ! तुम सुनोगी तो आनंद से उछल पडोगी! मुझ पर धन्यवाद की बारिश करोगी!
कुछ देर में पूर्ण स्वस्थता का अनुभव करने के बाद जटाशंकर ने कहा- आज तो मैंने पूरे पाँच रूपये बचाये है!
रूपये बचाने की बात सुनी तो जटाशंकर की कंजूस पत्नी के चेहरे पर आनंद तैरने लगा।
उसने कहा- जल्दी बताओ! कैसे बचाये!
जटाशंकर ने कहा- आज मैं आँफिस से जब निकला तो तय कर लिया कि आज रूपये बचाने हैं। इसलिये बस में नहीं बैठा! बस के पीछे दौडता हुआ आया हूँ। यदि बस में बैठता तो पाँच रूपये का टिकट लगता! टिकट लेने के बजाय मैं उसके पीछे दौडता रहा, हाँफता रहा और इस प्रकार पाँच रूपये बचा लिये। बोलो धन्यवाद दोगी कि नहीं!
जटाशंकर की पत्नी का मुखकमल खिल उठा! परन्तु पल भर के बाद नाराज होकर बोली- अजी! आप तो मूरख के मूरख ही रहे!
अरे! जब दौडना ही तो बस के पीछे क्यों दौडे! सिर्फ पाँच रूपये बचे! यदि टेक्सी के पीछे दौडते तो पचास रूपये बच जाते! जटाशंकर ने अपना माथा पीट लिया।
पाँच बचे, इसका सुख नहीं। पचास नहीं बचे, इसका दु:ख है। जबकि पाँच रूपये बचे, यह यथार्थ है.... पचास रूपये बचने की बात कल्पना है। यथार्थ को अस्वीकार कर काल्पनिक दु:ख के लिये जो रोते हैं, वे अपनी जिन्दगी व्यर्थ खोते हैं।