शनिवार, 4 अक्तूबर 2014

जटाशंकर -कोई भी आज्ञा दुगुनी कैसे मानी जा सकती है! पूछा- दुगुनी से क्या तात्पर्य है तुम्हारा! जटाशंकर मासुमियत से बोला- मां कहती है-

0 उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.
स्कूल में अध्यापक ने छात्रों को माता पिता के प्रति भक्ति का पाठ पढाया था। माता पिता के उपकारों की व्याख्या करके उनके प्रति श्रद्धा जगाने का प्रयास किया था। श्रवणकुमार का उदाहरण सुना कर माता पिता की हर आज्ञा मानने का उपदेश दिया था।
उसने छात्रों से पूछा- माता पिता की आज्ञा मानते हो कि नहीं!
कई बच्चों ने उत्तर देने की मुद्रा में अपना हाथ ऊपर उठाया।
अध्यापक ने जटाशंकर से कहा- तुम बताओ!
जटाशंकर तुरंत बोला- मैं तो अपने माता पिता की आज्ञा दुगुनी मानता हूँ।
दुगुनी शब्द सुनकर अध्यापक विचार में पड गया। कोई भी आज्ञा दुगुनी कैसे मानी जा सकती है!
पूछा- दुगुनी से क्या तात्पर्य है तुम्हारा!
जटाशंकर मासुमियत से बोला- मां कहती है- आधी मिठाई खाना। पर मैं उनकी आज्ञा को दो गुना करते हुए मिठाई पूरी खा जाता हूँ।
सुनकर पूरी कक्षा ठहाके मार कर हँसने लगी।
हमारे अन्तर में यह विचार होना चाहिये कि हम जिनाज्ञा का कितना पालन करते हैं। या अपने स्वार्थ के लिये जिनाज्ञा की व्याख्या अपने मन मुताबिक करने लग जाते हैं! जिनाज्ञा का अक्षरश: पालन करना ही धर्म है। न कम, न ज्यादा!