सोमवार, 23 जुलाई 2012

20 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

20 जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.

उम्र छोटी होने पर भी जटाशंकर बहुत तेज तर्रार था। हाजिर जवाब था। बगीचे में आम्रफलों से लदे वृक्षों को देखकर उसके मुँह में पानी भर आया। वह चुपके से बगीचे में घुसा और पेड पर चढ़ गया। आमों को तोड़ तोड़कर नीचे फेंकने लगा। दस-पन्द्रह आम तोड़ लेने के बाद भी वह लगातार और आम तोड़ रहा था।
वह एक और आम तोड़ रहा था कि बगीचे का मालिक हाथ में डंडा लेकर भीतर चला आया।
जटाशंकर को आम तोड़ते देखकर चिल्लाने लगा।
जटाशंकर पलभर में सारी स्थिति समझ गया। क्षणभर में दिमागी कसरत करता हुआ कहने लगा।
पधारिये बाबूजी !
उसे मुस्कराते देख बगीचे के मालिक का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ गया।
एक तो आम तोड़ रहा है, उपर से मुस्करा भी रहा है? तू नीचे उतर! फिर चखाता हूं मजा।
जटाशंकर कहने लगा- अरे! भलाई को तो जमाना ही नहीं रहा। कौन कहता है कि मैं आम तोड़ रहा था। अरे! ये आम नीचे पड़े थे। शायद हवा से नीचे गिर गये होंगे। मैं इधर से गुज़र रहा था, तो मैने सोचा कि आम नीचे पड़े हैं। कोई ले जायेगा तो आपका नुकसान हो जायेगा, इसलिए मैं तो इन गिरे हुए आमों को वापस चिपका रहा था। मैं कोई तोड़ नहीं रहा था। इसमें भी आप नाराज़ होते हैं तो मैं ये चला।
बगीचे का मालिक देखता ही रह गया।
बातों से उलझाना और उलझाकर घुमाना अलग बात है और सत्यता को स्वीकार करना अलग बात है। यही संसार के विस्तार और आत्म अस्तित्व के ऊर्ध्वारोहण का आधार है।

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