सोमवार, 23 जुलाई 2012

19 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

19 जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.
स्वभाव से ढीला ढाला जटाशंकर किसी भी बात पर दृढ नहीं रह पाता था। इसके कारण उसके माता पिता भी बहुत परेशान रहते थे तथा उसे बार बार समझाते थे कि थोडा दृढ़ रहना चाहिये। अपनी बात पर डटे रहना चाहिये। जो पकड़ लिया, उसे छोड़ना नहीं चाहिये।
सुन सुन कर जटाशंकर तंग आ गया। आखिर उसने तय कर लिया कि अब मैं पकडी बात तो हरगिज नहीं छोडूंगा। डटा रहूंगा। प्राण जाए पर वचन न जाइ का प्राण से पालन करूंगा।
एक बार विचारों में खोया किसी गली से गुजर रहा था। उसने आगे जाते हुए एक गधे को देखा। पता नहीं, क्या मन में आया कि उसने गधे की पुंछ पकड़ ली।
कुछ देर तो गधा सीधा चलता रहा पर जब उसने अपनी पुंछ पर मंडराता खतरा महसूस हुआ तो उसने अपना परिचय देना प्रारम्भ किया। उसने दुलत्ती झाडना शुरू कर दिया। जटाशंकर को अपनी मां के वचन याद हो आये कि पकडी चीज को छोड़ना नहीं चाहिये। उसने मन को मजबूत कर लिया कि आज कुछ भी हो जाये, पुंछ नहीं छोडूंगा।
भागते और लात मारते गधे के पीछे पुंछ पकड कर मार खाते जटाशंकर को जब लोगों ने देखा तो कहा अरे! पुंछ छोड़ क्यों नहीं देता?
जटाशंकर ने जवाब दिया कैसे छोड़े? मेरी मां ने कहा था पकड़ी वस्तु का त्याग नहीं करना चाहिये।
आग्रह जब दुराग्रह , कदाग्रह में बदल जाता है तो स्थिति ऐसी ही हो जाती है। हर क्रिया में विवेक का उपयोग तो होना ही चाहिये।

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