सोमवार, 23 जुलाई 2012

24 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.


24 जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.

जटाशंकर तिलमिलाता हुआ जा रहा था। आँखों के कोनों में लाली उभर आई थी। नथुने फड़क रहे थे। ललाट में दो सल स्पष्ट नजर आ रहे थे।
सामने दोस्त जटाशंकर मिला। उसने अपने दोस्त के चेहरे को देखा तो उस पर छाई विषाद की रेखाऐं नजर आई।
उसने रूक कर जटाशंकर से पूछा क्या बात है? क्या सुबह सुबह भाभी से झगड़ा हुआ है?
पाँव पटक कर जटाशंकर बोला अरे नहीं। यह दुनिया कितनी चालबाज और मक्कार हो गई है।
क्यों? क्या हुआ?
अरे। आज सुबह ही सुबह एक अपरिचित दूध वाले से मैंने साढे चार रूपये का दूध खरीदा। पाँच रूपये दिये तो उसने खोटी अठन्नी पकड़ा दी।
उसके जाने के आधे घंटे भर बाद मुझे पता चला कि वह अठन्नी तो नकली है। क्या जमाना आ गया? घोर कलियुग?
घटशंकर ने पूछा-अरे। बुरा हुआ। अच्छा बताओं तो वह अठन्नी कैसी है।
जटाशंकर ने धीरे से कहा वो... वो... तो मैंने अभी अभी सब्जी खरीदी और सब्जी वाली मांजी को पकड़ा दी। भगवान तेरा लाख लाख शुक्रिया कि खोटी अठन्नी चल गई। वह हाथ आकाश की ओर करते हुए बोला
किसी और की मक्कारी पर क्रुद्ध होने वाला व्यक्ति जब स्वयं वैसी ही हरकत करता है तो अपने आपको सर्वथा निर्दोष समझता है। यही कथनी और करनी का अंतर है।

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