बुधवार, 18 जुलाई 2012

15 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.


15  जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.

जटाशंकर अपने तीन अन्य मित्रों के साथ घूमने चला था। अंधेरी रात में छितरी चांदनी का मनोरम माहौल था। मंद बहारों की मस्ती भरे वातावरण में उन्होंने शाम को शराब पी थी। शराब की मदहोशी के आलम में दिमाग शून्य था। उडा जा रहा था।
घूमते घूमते नदी के किनारे पहुँच गये। ठंडी हवा के झोंकों में सफर करने का उनका मानस तत्पर बना। नदी के किनारे नाव पडी थी। उसे देखा तो सोचा कि आज रात नाव में घूमने का आनंद उठा लिया जाय! जटाशंकर के इस प्रस्ताव का सबने समर्थन किया।
चारों मित्र नाव पर सवार हो गये। बैठते ही पतवारें थाम ली। रात के ठंडक भरे माहौल में उन्होंने नाव खेना प्रारंभ किया। शराब का नशा था तो पता ही नहीं चला कि समय कितना बीता!
रात भर वे नाव चलाते रहे। पतवारें खेते रहे। नशे के कारण हाथों में थकान का जरा भी अनुभव न था।
पौ फटने का समय आया। प्रकाश धीरे धीरे छाने लगा। तो एक दोस्त बोला- अरे ! नाव चलाने में अपन इतने मशगूल हो गये कि पता ही नहीं चला, कितनी दूर आ गये ! सवेरा होने का अर्थ है कि रात भर अपन चलते रहे हैं। कम से कम 100 कोस की दूरी तो अवश्य तय कर ली होगी।  अब वापस जायेंगे कैसे?
अचानक जटाशंकर की निगाहें किनारे पर पडी। अब शराब का नशा दूर हो चुका था। किनारे को देखा तो अचंभे में रह गया। वही घाट, वही झोंपडियाँ ! यह तो अपना ही गाँव मालूम होता है। यह कैसे हो सकता है! आखिर अपन रात भर चले हैं।
अचानक नाव को देखा, बंधी हुई रस्सी को देखा तो खिलखिलाकर हँस पडा।
अरे! आगे बढेंगे कैसे! नाव को खूंटे से तो खोला ही नहीं। बंधी नाव को ही चलाने का प्रयास करते रहे और समझते रहे कि नाव चल रही है और रास्ता तय हो रहा है।
नाव को खूंटे से  खोले  बिना आगे नहीं बढा जा सकता ।  ठीक  इसी प्रकार मोह के खूंटे  से मन  को खोले बिना अध्यात्म के क्षेत्र में प्रगति नहीं की जा सकती।

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