बुधवार, 18 जुलाई 2012

11 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

11 जटाशंकर      -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

जटाशंकर का बेटा बीमार था। बुखार बहुत तेज था। कमजोरी अत्यधिक थी। बोलने में भी पीड़ा का अनुभव था। छोटा सा गांव था। एक वैद्यराजजी वहां रहते थे। उन्हें बुलवाया गया। वैद्यराजजी ने घटाशंकर का हाथ नाड़ी देखने के लक्ष्य से अपने हाथ में लिया। जल्दबाजी कहें या अनुभवहीनता। कलाई में जहाँ नाड़ी थी, वहाँ न देखकर दूसरे हिस्से में नाड़ी टटोलने लगे। काफी प्रयास करने पर भी उन्हें नाड़ी नहीं मिली।
वैद्यराजजी के चेहरे के भावों का उतार-चढ़ाव जारी था। उनके उतरे चेहरे को देखकर जटाशंकर की ध्ाड़कन  तेज हो गई। उसे किसी अनिष्ट की आंशका हो रही थी।
काँपती जबान और धडकती छाती से उसने पूछा वैद्यराजजी। क्या बात है? आप कुछ बोल नहीं रहे हैं? सब ठीक तो है न? मेरा बेटा ठीक हो जायेगा न?
वैद्यराजजी ने उदास स्वरों में कहा भाई। इसकी नाडी नहीं चल रही है। इसका अर्थ है कि अब यह जीवित नहीं है क्योंकि जीवित होता तो नाड़ी चलती।
अपने बेटे की मृत्यु का संवाद सुनकर जटाशंकर जोर जोर से रोने लगा।
घटाशंकर ने अपनी सारी शक्ति एकत्र की ओर जोर से बोला पिताजी! मैं जिन्दा हूँ। मरा नहीं।
सुनकर जटाशंकर बोला चुप रह। तू ज्यादा जानता है या वैद्यराजजी। जब वैद्यराजजी ने कह दिया कि तू मर गया तो मर गया।
अपने अस्तित्व का बोध कोई और कैसे देगा! मैं ही मुझे जान सकता हूं।
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