बुधवार, 18 जुलाई 2012

8 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

8 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

जटाशंकर अपने दोस्त के यहाँ मेहमान था। भोजन का समय होने पर थाली परोसी गई। अन्य सामग्री के साथ एक कटोरी में खीर भी रखी गई। परोस कर मित्र वापस रसोई में गया ही था कि जटाशंकर ने खीर की कटोरी को पास की नाली में उडेल दिया। यह देख दोस्त ने सोचा शायद खीर में कुछ कचरा पड़ गया होगा। दुबारा उस कटोरी को भर दिया।
मगर जटाशंकर ने दूसरी बार भी खीर को नाली में फेंक दिया। दोस्त बडा हैरान हुआ। उसे गुस्सा भी आया कि इतनी महंगी, बढिया और स्वादिष्ट खीर को यह यों फेंक रहा है। लेकिन मेहमान होने के नाते उसने कुछ नहीं कहा। वह क्रोध को भीतर ही पी गया और तीसरी बार उसने कटोरी को खीर से भर दिया।
पर जब तीसरी बार भी जटाशंकर ने खीर को नाली में बहा दिया तो मेजबान ने गुस्से से पूछा-‘भाई, तुम बार बार खीर को नाली में क्यों फेंक रहे हो?’
जटाशंकर ने कहा-फेंकू नहीं तो क्या करूं? खीर में चींटी है। कैसे पीउं?
दोस्त ने पल भर उसे देखा और चीख कर कहा अरे मूर्ख! चींटी खीर में नहीं तुम्हारे चश्में पर चल रही है, जो तुम्हें खीर में नजर आती है।
जटाशंकर ने चश्मा उतार कर उस पर चल रही चींटी को देखा तो झेंपता हुआ खिसिया गया।

चश्मा साफ हो तो वस्तु यथार्थ नजर आती है। चश्में का अर्थ है दृष्टि। दृष्टि को बदले सुधरे बिना यथार्थ अनुभव की कल्पना नहीं हो सकती।

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