सोमवार, 16 जुलाई 2012

2 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.


 2 जटाशंकर     -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

जटाशंकर चिंता में था। उसकी पुत्री विवाह योग्य थी। पर अत्यन्त कुरूपा होने के कारण विवाह निर्धारण में समस्या रही थी। बहुत खोज कर एक अन्धे व्यक्ति के साथ उसका विवाह कर दिया गया।  प्रसन्नता के साथ जीवन व्यतीत हो रहा था।
एक बार पुत्री मायके आई हुई थी। तभी एक दिन एक वयोवृद्ध संन्यासी उनके घर आया। उसने कहामहाशय! मैने हिमालय की दुर्गम घाटियों में घूम कर दुर्लभ बूंटी पाई हैं। यदि उस बूंटी के रस की दो बूंदें किसी भी अंधे की आंख में डाल दी जाय तो उसकी आंखों में रोशनी सकती है। मैने सुना है कि आपके जामाता अंधे है, मैं उसे दृष्टिवान  बना सकता ह़ू 
सुनकर पुत्री आनन्द मग्न हो गई। मेरा पति देखने लगेगा, इस कल्पना से ही हर्षित हो उठी। कुछ देर विचार कर जटाशंकर ने उस महात्मा से कहा- महात्मन! हमें ऐसी बूंटी नहीं चाहिये। महात्मा के जाने के बाद रूष्ट स्वरों में पु़त्री ने पिता से कहा-पिताजी आपने यह क्या किया? क्या आप मेरा सुखी जीवन नहीं चाहते?
जटाशंकर ने कहा-बेटी! तुम्हारे सुख के लिये ही तो मैं नहीं चाहता कि वह देखे! क्योंकि वह ज्योंहि देखने लगेगा, तुम्हारी बाह्य कुरूपता देखेगा और सर्वप्रथम तुम्हारा त्याग करेगा। अंधे पति का कुरूप पत्नी के साथ तभी तक अनुबंध है जब तक आंखें नहीं है। आंखों में ज्योति आने के बाद यह अनुबंध टिक नहीं सकता।
संसार रूप कुरूप पत्नी के साथ तभी तक अनुबंध है, जब तक चैतन्य दृष्टि में ज्योति का अभाव है।

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