7 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.
घर में जटाशंकर जोर जोर से रो
रहा था। चीखता भी जा रहा था। हाय मेरी नई की नई छतरी कोई ले गया? लोक इकट्ठे होने लगे।
पड़ोसी पहुँच गये। दोस्तों को खबर मिली की जटाशंकर रो रहा है तो वे भी सांत्वना देने
आ पहुँचे।
उनके पूछने पर जटाशंकर ने कहा-मैं
ट्रेन से आ रहा था। मेरे पास नया छाता था। दो-तीन व्यक्ति रेल में मेरे पास बैठे मुझसे
बतिया रहे थे। बातों ही बातों में मुझे पता ही नहीं चला और उन्होंने छाता बदल लिया।
अपना पुराना फटा पुराना छाता छोड़ दिया और नया छाता ले गये। हाय मेरा नया छाता? अपनी
छतरी की यादें ताज़ा हो उठी। क्या मेरा नया छाता था? एक बार भी तो काम में नहीं लिया
था।
दोस्तों में सांत्वना देते हुए
कहा चिंता मत करो। जो चला गया वो वापस तो नहीं आयेगा।
वातावरण कुछ हल्का होने पर एक
मित्र ने विचार कर पूछा। एक बताओ, जटाशंकर।
क्या?
यह तो बता कि तूने वह छाता कब
ख़रीदा था, कहां से, किस दुकान से ख़रीदा था, कितने रूपये का था?
जटाशंकर ने कहा-यह मत पूछ! यह
तो पूछना मत।
उसके दृढ़ इंकार ने दोस्तों के
मन में रहस्य गहरा हो उठा। वे पीछे ही पड़ गये। तुम्हें हर हाल में बताना ही होगा।
आखिर जटाशंकर हार कर कहने लगा
अब तुम जिद कर रहे हो तो बताना ही पड रहा है। असल में तुम तो जानते हो कि मेरे पास
पुराना, फटा छाता था। एक बार रेल से यात्रा कर रहा था। मेरे पड़ोस में एक व्यक्ति बैठा
झपकी ले रहा था। स्टेशन आने पर आँख बचा कर उसके नये छाते से अपना पुराना छाता बदल लिया।
यह वही नया छाता था। हाय रे मरा नया का नया छाता, कोई दुष्ट ले गया। सुनकर दोस्त मुस्कुरा कर घर की ओर चल दिये।
हमें सदैव वहीं त्रुटि त्रुटि
लगती है जो दूसरे करते हैं। अपनी गलती को होशियारी समझ कर, हम स्वयं पर इतराते हैं।
चिंतन को तटस्थ बनाना ही सही समझ है।
--------------------------