36. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.
घटाशंकर की विद्वत्ता दूर दूर
तक प्रसिद्ध थी। पर लोगों के मन में इस बात का रंज था कि पंडितजी घोर अहंकारी है। किसी
की भी बात को काटने में ही वे अपनी विद्वत्ता को सार्थक मानते थे।
एक बार जटाशंकर ने उन्हें भोजन
करने का निमंत्रण दिया। पंडित प्रवर ज्योंहि भोजन करने के लिये बैठे, जटाशंकर ने उन्हें
याद दिलाते हुए कहा- आप हाथ धोना भूल गये हैं, चलिये पहले हाथ धो लीजिये।
पंडितजी को भी अपनी
भूल तो समझ में आ गई कि भोजन की थाली पर आने से पूर्व ही हाथ धो लेने चाहिये
थे। पर अब क्या करें? कोई और मुझे मेरी गलती बताये, यह मुझे मंजूर नहीं है।
उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब
दिया- अरे यजमान! क्या तुम पानी से हाथ धोने की बात करते हो। हमारे अन्दर तो ज्ञानगंगा
लगातार बह रही है। इसलिये उस जल से हम सदा स्वच्छ ही रहते हैं। क्या इस बाहर के पानी
से हाथ धोना!
जटाशंकर इस उत्तर से अन्दर ही
अन्दर बहुत कुपित हुआ। उसने इस उत्तर का प्रत्युत्तर देने का तय कर लिया।
भोजन में भरपूर दाल बाटी खा लेने
के बाद पंडित प्रवर घटाशंकरजी को गहरी निद्रा आने लगी। वे खूंटी तानकर सो गये। सोने
से पहले यजमान जटाशंकर को कहा- भैया! पानी का लोटा भर कर सिरहाने के पास रख देना।
जटाशंकर के दिमाग में पंडितजी
का उत्तर तैर रहा था।
उसने कमरे में पंडितजी को सुलाकर
दरवाजा बाहर से बंद कर दिया और पास वाले कमरे में जाकर सो गया।
एक घंटे के विश्राम के बाद दो
बजे पंडितजी की आँख खुली। उन्हें जोरदार प्यास लगी थी। पानी पीने के लिये लोटा हाथ
में लिया तो देखा कि लोटा तो एकदम खाली था। उसे यजमान के प्रति बडा
क्रोध आया। मैंने कहा था कि लोटा भर कर रखना। पर इसने तो रखा ही नहीं।
उन्होंने दरवाजा खटखटाना शुरू
किया। जटाशंकर सुन रहा था, पर दरवाजा नहीं खोला। आखिर पंडितजी जोर से चिल्लाने लगे।
प्यास खतरनाक रूप से गहरी हो गई।
आखिर चार बजे जटाशंकर ने दरवाजा
खोला। और कृत्रिम क्षमायाचना करते हुए कहने लगा- माफ करना पंडितजी, जरा आँख लग गई थी।
फरमाईये कोई काम तो नहीं!
पंडितजी ने आँखें तरेरते हुए
कहा- काम पूछता है। प्यासा मार दिया। एक बूंद पानी लोटे में नहीं था।
जटाशंकर ने कहा- अरे पंडितजी!
आप क्या पानी पानी करते हो! ज्ञानगंगा आपके भीतर ही बह रही है। प्यास लगी थी तो एक
लोटा वहीं से भरकर पी लेते। क्या बाहर का पानी पीते हो! अंदर के ज्ञानघट का पानी पीजिये।
अपने नहले पर इस दहले को सुनते
ही पंडितजी को बात समझ में आ गई। उन्होंने क्षमायाचना करने में सार समझा।
जीवन में व्यवहार जरूरी है। दार्शनिकता
का संबंध चिंतन से है। जबकि जीवन तो व्यवहार से चलता है।