35 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.
जटाशंकर की माता सामायिक कर रही
थी। दरवाजे के ठीक सामने ही उसने अपना आसन लगाया था। सामायिक लेकर वह माला हाथ में
लेकर बैठ गयी थी। उसकी बहू पानी लेने के लिये कुएं पर जाने की तैयारी कर रही थी। तब
नल घरों में लगे नहीं थे। बहूजी ने घडा हाथ में लिया... इंडाणी भी ले ली..। पर बहुत
खोजने पर भी उसे पानी छानने के लिये गरणा नहीं मिला। उसने इधर से उधर पूरा कमरा
छान मारा... पर गरणा नहीं मिला।
सासुजी सामायिक में माला फेरते
फेरते भी बहू को देख रही थी। वह समझ गयी थी कि बहू को गरणा नहीं मिला है। सासुजी को
सामने ही गरणा नजर आ रहा था। पर बहू को नहीं दीख रहा था। सासुजी ने माला फेरते फेरते
हूं हूं करते हुए कई बार इशारा किया। पर बहूजी समझ नहीं पाई।
इशारा करते सासुजी को बहूजी ने
देखा तो आखिर परेशान होकर कह ही दिया कि मांजी! अब आप बताही दो कि गरणा कहाँ रखा है?
मुझे देर हो जायेगी पानी लाने में... फिर दिन भर के हर काम में देर होती ही रहेगी।
सासुजी साधु संतों के प्रवचनों
में जाने वाली थी। वह जानती थी कि सामायिक में सांसारिक वार्तालाप किया नहीं जाता।
धार्मिक शब्दों का ही उच्चारण किया जा सकता है। अब गरणा मेरे सामने पडा है, पर बहू
को बताउँ कैसे?
आखिर उसने युक्ति काम में ली।
उसने एक पद्य की रचना की। वह जोर से बोलने लगी!
अरिहंत देव को शरणो।
खूंटी पर पड्यो है गरणो!
अरिहंत परमत्मा का नाम लेकर
अपने धार्मिक मन को संतोष भी दे दिया और गरणे का स्थान बताकर बहू का समाधान भी
कर लिया।
यह गली निकालने वाली बात है।
यह धार्मिक प्रवृत्ति नहीं कही जा सकती। हम गलियाँ निकालने में माहिर है पर इससे
मूल सिद्धांतों के साथ धोखा कर बैठते हैं।